गुरुवार, 15 दिसंबर 2011

हर रोज का राही...

रोज - रोज,
हजारों लोग,
मिलते हैं मुझको...
कुछ अनजाने से,
कुछ जाने पहचाने से चहरे,
दिखते हैं मुझको...

शनिवार, 10 दिसंबर 2011

तेरा "माही" हूँ मैं... (maahi hoon main)

तेरी रातों का आलम हूँ मैं,
तेरी ज़िन्दगी के सातों जनम हूँ मैं...
मैं तो हूँ तेरी जुल्फों को सहलाती ठंडी हवा,
और तेरे बदन को भिगोता सावन हूँ मैं...

खुशबु तेरे बदन की,
मुझसे ही फ़ैल रही है फिज़ा में...
आजा ओ मेरी दिलरुबा !
छुपा लूं तुझे आगोश में अपनी...
के तेरा दिलबर, तेरा साजन हूँ मैं...

वो तेरे लबों की सुर्ख लाली,
वो तेरी जुल्फों की घटाएं काली - काली,
और वो तेरे मस्त नैनों की अदा मतवाली...
के मैं तो हूँ तेरा वक़्त और तेरा हमदम हूँ मैं...

वो तेरा शबाब-ए-हुस्न,
और तेरा महकता जिस्म,
मैं तो हूँ तेरी रग - रग में शामिल,
के तेरी मांग को सजाता कुमकुम हूँ मैं...

वो तेरा अदा से आँखें झुकाना,
और तेरा लातों को अपनी उँगलियों से खेलना और इतराना...
कभी तेरा शर्म से भी ज्यादा शर्माना...
तो कभी तेरी हया का दामन हूँ मैं...

वो तेरा बात - बात पे मुस्काना,
मुझसे बात करते वक़्त किसी की आहट से तेरा सहम जाना...
मैं तो हूँ तेरे लबों पे रूकती हर बात,
कभी उलफ़त-ए-शमा में मरता परवाना,
तो कभी जन्मों से तेरी उलफ़त में जीता तेरा "माही"...
तेरा जानम हूँ मैं...

- महेश बारमाटे "माही"

रविवार, 13 नवंबर 2011

एक चाहत थी...

एक चाहत थी,
तुमसे मिलने की...
गर पूरी हो पाती तो...

एक चाहत थी,
तेरे संग कुछ वक़्त साथ बिताने की...
गर पूरी हो पाती तो...

एक चाहत थी,
तेरे संग हंसने गाने की...
गर पूरी हो पाती तो...

एक चाहत थी,
तेरी हर ख़ुशी - ओ - गम में तेरा हर पल साथ निभाने की...
गर पूरी हो पाती तो...

एक चाहत थी,
बहुत कुछ समझने - समझाने की...
गर पूरी हो पाती तो...

और आज पूछ रही हो तुम,
के क्या चाहत है मेरी...
अब कैसे कहूँ तुमसे मैं... 
के मेरी तो बस चाहत थी यही... 

तेरे संग सातों जनम बिताने की...
बन के तेरा "माही"
तुझमें खो जाने की...

पर काश पूरी हो पाती तो... !

- महेश बारमाटे "माही" 

मंगलवार, 27 सितंबर 2011

वो एहसास...

पहले हम दोस्त बने,
और फिर
कुछ दिन बाद,
हमारी दोस्ती...
दोस्ती से भी बढ़ कर हो गई...

वो एहसास...
न तो दोस्ती थी
और न ही प्यार था...
वो जो कुछ भी था
शायद हमारी किस्मत को नागवार था...

के अब दरमियाँ हमारे,
न तो दोस्ती रही
और न ही प्यार...
और न ही रहा अब
दोस्ती से भी बढ़कर कुछ और...

रविवार, 18 सितंबर 2011

इक नई सरगम...

सुबह की पहली किरण का आगाज,
देखो ले के आया है एक नया दिन, एक नया आज।

वो देखो चली आ रही है ठंडी पुरवाई,
के लगता है जैसे इसने रात के संग होली हो मनाई।

पंछियों का ये सुरम्य संगीत,
पल भर में हर किसी को बना ले ये अपना मीत।

शनिवार, 10 सितंबर 2011

वो... मुझसे पूछा करती थी...

वो हर सुबह मुझसे 
मेरा ख्वाब पूछा करती थी...
कैसा था वो बीती रात का 
बादलों के पीछे छिपता महताब पूछा करती थी...। 

बुधवार, 31 अगस्त 2011

किस्मत का लिखा...

सुबह - सुबह तैयार होकर,
निकाल पड़ता हूँ मैं,
अपनों से दूर,
एक ऐसी मंज़िल की ओर,
जिसे पाना मेरी नियति में न था,
पर किस्मत ने मेरी,
इसे पाने पर मुझे मजबूर कर दिया।

आज ज़िंदगी मेरी मुझे,
एक ऐसे रास्ते पर ले जा रही है,
जिसपे चल पाना,
मेरे सपनों में भी दूभर था,
पर जाने ये कैसी घड़ी है,
जिसने मुझे अपने लिए भी
जीने न दिया...

दिल कोस कोस के
हर रोज मुझे
धिक्कार रहा है
और दे रहा है हर पल
ये आवाज,
के ऐ महेश !
आखिर तू ने ये क्या कर लिया ?

अब इस दिल को,
कैसे समझाऊँ मैं,
के शायद मैंने,
कुछ भी नहीं है किया...
बस मेरी किस्मत ने ही मुझे,
शायद खुद के लिए कभी,
कुछ करने ही न दिया।

फिर भी दिल में,
आस अब भी बाकी है,
के फिर एक सपने को
जीना है मुझे,
फिर तैयार होना है,
किस्मत से लड़ने के लिए,
के इस हार ने तुझे "माही"
जीने के लिए
फिर जीवित है कर दिया...।

के जीना ही होगा,
इक सपने को,
इस बार,
वरना मर जाएगा "माही"
हमेशा...., हमेशा के लिए तू,
और हो जाएगा
खत्म तेरा वजूद...
गर तूने अबकी बार,
किस्मत के लिखे को
फिर स्वीकार कर लिया...

- महेश बारमाटे "माही"
29 अगस्त 2011
9:17 am 

चित्र आभार : गूगल (google search)

सोमवार, 15 अगस्त 2011

चलो एक नया जहां बसाते हैं...


सर्वप्रथम आप सभी को स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं... 
चलो एक नया जहां बसाते हैं,
कहीं से थोड़ी सी जमीन ढूंढ के लाते हैं...। 

प्यार की बरखा से, स्नेह के नए पुष्प खिलाते हैं,
स्वर्ग से भी बढ़ कर, चलो कोई जहाने-मुहब्बत बसाते हैं...। 

चलो आसमां से तारों की, भस्म चुन के लाते हैं, 
के आज इस धरती को, दुल्हन की तरह सजाते हैं...। 

चलो एक नया जहां बसाते हैं...।

एक ऐसा जहां, जहाँ सरहदों का कोई अस्तित्व न हो...
और बैर, क्रोध, मोह - माया का भी, कोई मित्र न हो...। 

न हो जहाँ कुछ भी कभी तेरा - मेरा,
आपसे भाईचारे से हो शुरू, हमारा हर सवेरा...। 

बस मानवता के एक मात्र धर्म को,
अपने दिलों मे बसाते हैं... 
ऐ मेरे माही !
चल एक नया जहां बसाते हैं...। 

तोड़ के सारी दीवारों को, 
अपनी सोच का दायरा बढ़ाते हैं... 
के थम जाये जहाँ सोच तुम्हारी,
बस उतना ही बड़ा जहां बनाते हैं...। 

छोड़ के आज अपने भाग्य का साथ,
चल आज कर्म को हम अपनाते हैं... 
एक ईश्वर की परिभाषा को,
फिर लिख के दोहराते हैं...। 

सुन ऐ नर, सुन ऐ नारी !
सुन ओ वन और वन्य प्राणी !
चलो मिल जुल कर हम,
एक सपना साकार बनाते हैं। 

आज चुन कर एक नयी राह,
चलो एक नया जहां बसाते हैं...। 

एक नया जहां बसाते हैं
      एक नया जहां बसाते हैं...

- महेश बारमाटे "माही"
12th Aug 2011


मंगलवार, 9 अगस्त 2011

ऐ वीर ! मैदान-ए-जंग में उतर जा...




मैदान-ए-जंग में उतर जा,
ऐ वीर ! तू आज कुछ कर गुजर जा,
आज तुझे है किस बात का इंतजार ?
किसी की खातिर न सही,
देश के लिए तो आज तू मर जा...
ज़िन्दगी में कुछ न किया, न सही...,
पर आज तू देश के लिए कुछ कर गुजर जा...

सोच के तेरा महबूब
देश की इस माटी में है बसा...
और उसके लिए जंग लड़ना 
तेरे लिए है इक खुबसूरत सजा...
बस उस महबूब की आन की ख़ातिर,
और देश की शान की ख़ातिर,
देश के दुश्मनों से आज तू लड़ जा,
ऐ वीर ! देश के लिए आज तू कुछ कर जा...

मत भूल के इसी माटी पे खेल कर, तू है बड़ा हुआ...
इसके ही आशीर्वाद से, अपने पैरों पर तू है खड़ा हुआ...

इसकी ही गोद में है तू ने हर ख़ुशी पायी,
पर आज देश के दुश्मनों को नहीं है इसकी खुशहाली भायी...

दुश्मन को देने को मुँह तोड़ जवाब,
आज तू मैदान-ए-जंग में उतर जा...
ऐ वीर जवान !
आज भारत माँ का क़र्ज़ चुकता कर जा...

आज इस देश को तू,
हर एक ख़ुशी दे दे...
हो सके तो इसकी ख़ातिर मर के तू,
इसे एक नयी जिंदगी दे दे...

देश की इस जंग में तू, अपनी हर एक हद से गुजर जा,
खुशहाल भारत का सपना,
आज हर एक भारतीय की निगाह में सच कर जा...

के बदनसीब है वह इन्सां,
जिसके दिल में वतन के लिए मुहब्बत नहीं...
कोशिशें तो सभी करते हैं,
पर वतन के लिए मर मिटना हर किसी की किस्मत नहीं...

मिला है मौका तुझे, तो भारत माता का सपना पूरा कर जा...
ऐ वीर दोस्त मेरे! आज तू भारत माता के लिए, दुश्मन का सिर कलम कर जा...


महेश बारमाटे "माही"
1 सितम्बर 2010

शुक्रवार, 29 जुलाई 2011

ये मेरी किस्मत...


जिसे पाने की उम्मीद पे चला हूँ,
वो मंजिल तो कभी दिखाई ही नहीं देती। 
के हर रहगुज़र बन के मेरा हमसफर,
अक्सर मुझे यूं ही तन्हा छोड़ गया। 

पर फिर भी जाने किस उम्मीद में जी रहा हूँ,
के कभी तो मंज़िल को पा ही लूँगा। 
और वो भी फिर आएगा एक बार फिर पास मेरे,
जो पिछली दफ़ा मुझसे था मुंह मोड़ गया। 

आज आसमाँ से गिरी एक बूंद भी मुझको,
तूफाँ की तरह भिगो गई, 
लगा के जैसे मंद हवा का इक हल्का सा झोंका,
भी मुझे झँझोड़ गया। 

जाने कितने जतन किए होंगे मैंने, 
इन लबों को फिर खुशी देने के वास्ते...
पर किस्मत का हर ज़र्रा हर बार मेरा,
हर करम निचोड़ गया...। 

फिर भी आज बैठा हूँ मैं इसी आस मे,
के लगता है मंज़िल अब भी यहीं कहीं है मेरे पास में।
और कह रहा है कोई इस दिल से,
के एक नज़र फिर देख इधर ओ मेरे "माही"!
वो जाता "लम्हा" भी किस्मत का फिर एक नया, दरवाजा खोल गया। 

महेश बारमाटे "माही"
19 जुलाई 2011
4.32 pm

मंगलवार, 12 जुलाई 2011

वह, उसकी यादें... और... मैं...

उसे क्यों याद करूँ जो कभी मेरी थी ही नहीं...
ऐ खुदा ! बस एक इल्तिजा है मेरी 
के खुश रखना सदा उसे जिसने मुझे खुश होना सिखाया 
जिसने मेरे गीतों को अपने होंठों से था लगाया 
और जिसने मेरे दिल को एक बार फिर धड़कना था सिखाया...

आज वो जहाँ भी है, शायद खुश है
तो क्यों उसे अपनी मौजूदगी का एहसास दिलाऊं ?
ऐ चाँद ! जा तू उसे रातों को मीठी नींद में सुलाना...
ऐ फलक के तारों ! जाओ तुम उसका आँचल बन जाओ...

जाओ सारी खुशियाँ भर दो झोली में उसकी...
के मेरा जिक्र भी उसे छू न पाए...
मेरे अक्स की परछाई भी उसे याद न आये कभी...
के वो तो चली गई है बिना मुझसे कुछ कहे...
तो आखिर क्यों मैं उसे याद करूँ ?

और क्यों कहूं उसे आज मैं संगदिल 
जब दिल तो बस मैंने था उससे लगाया ?
उसके साथ बीते हर पल को अपनी आँखों में था बिठाया...
के शायद वही था मेरी ज़िन्दगी का सरमाया...

ऐ हवा जा उसके आँचल को सहला,
उसकी जुल्फों में कहीं खो जा
और बस इतना सा काम और कर,
के जब वो तनहा हो अगर...

तो मेरा नाम उसके कानों में जाके धीरे से कहना
देख के कहीं उसे चोट न लग जाये 
जरा प्यार से उसे अपनी बाहों में तुम लेना
और याद दिलाना के आज भी कोई है जो उसे याद करता है

कोई है जो आज भी उसकी तस्वीर को देख के गज़लें लिखा करता है...
आज भी वो मेरी कहानियों में शामिल सी दिखाई देती है...
आज भी कहानी के हर दृश्य में वो मेरी नायिका बन के इठलाती है
आज भी मैं उससे उतना ही प्यार करता हूँ 
और आज भी उसके दीदार का इंतज़ार करता हूँ...

वो मेरी ज़िन्दगी का हर लम्हा चुरा के ले गई
ऐ वक्त ! जरा उसे मेरी कमी महसूस मत करा 
के फूलों सी नाजुक है वो 
कहीं बिखर न जाए 
उसका ख्याल रख 
उसे मेरे दिल में बसा 

के याद नहीं करना उसे अब 
जिसे पाने की तमन्ना आज भी है 
वो दूर ही सही पर मुझे 
ऐ मेरे "माही"!
तुझसे मुहब्बत आज भी है ...

१२ जुलाई २०११ 
4:26 am

शुक्रवार, 1 जुलाई 2011

मैं तन्हा ही रहा...

मैं हर पल रहा, हर महफ़िल में उनकी,
फिर भी न जाने क्यों, हर दम मैं तन्हा ही रहा...?

दिल से मिल के मैंने,
दी हर किसी को इस दिल में पनाह,
फिर भी जाने क्यों हर दम,
मैं बेपनाह ही रहा?

हर कश्ती का मुसाफिर मुझसे,
रास्ता पूछता गया
और खुद समंदर में होके भी मैं,
साहिल की तलाश में प्यासा ही रहा...

किसका रास्ता देखूँ अब मैं, 
के हर एक मुसाफिर है यूँ निकल गया,
के दिल का ज़हां,
मेले में भी हरदम वीराना ही रहा...

किसी ने कहा था मुझसे,
के ये दौर यूँ ही गुजर जायेगा...
और बीते दिन याद करता मैं.
बीती रात बस रोता ही रहा...

देखो कैसे भूल बैठा है, मेरा "माही"!
के मैं भी कभी संग था उसके
और दिल में हर - पल,
उसकी मुहब्बत का आँसू हरदम,
बस चमकता ही रहा...

महेश बारमाटे "माही"
८ मई २०११ 

रविवार, 26 जून 2011

वो गए, दिल गया...

नज़रें मिला के वो दिल चुरा के ले गए,
दिल बहला के वो हमको अपना बना के ले गए,
पर वो जो गए, तो भी गम न किया हमने कभी, 
के अब कि बार वो दिल हमारा अपना बना के ले गए...

वो गए, दिल गया...
फिर भी उनकी यादों यादों के सहारे हम जीते चले गए,
बिताये जो लम्हे संग उनके हमनें,
वो सारे पल भी वो अपना बना के ले गए...

वो मेरी हर बात पे उनका मुस्काना, 
मेरी शायरियों को हर दम अपने होंठो से गुनगुनाना,
कभी रूठना उनका तो कभी मेरा मनाना,
वो ज़िन्दगी के हर पन्ने को इक याद बना के चले गए...

वो बीता हुआ कल,
उनके संग बीता मेरा हर एक पल,
आज भी लिख रहा हूँ मैं कागजों पर,
के वो दिल में मेरे, अपनी धाक बना के चले गए...

वो उनकी दोस्ती में जी उठना,
और दोस्त की खातिर कुछ कर गुजरना...
कॉलेज का हर एक दिन,
वो मेरे लिए ख़ास बना के चले गए...

वो दोस्ती का हर एक पल,
कुछ इस तारा जीया मैंने, अपना वो कल...
के रहेगी दोस्ती हमारी सदा अमर,
वो दिल में मेरे ये विश्वास बना के चले गए...

- महेश बारमाटे "माही"
8th April 2011
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यह कविता मेरे सारे कॉलेज फ्रेंड्स को समर्पित है, आज वे यहाँ नहीं हैं, सभी अपनी अपनी निजी ज़िन्दगी में मशगूल हो गए हैं, पर कोई है जो आज भी उन्हें तहे-दिल से याद करता है... चाहे वे कितने भी दूर क्यूँ न चले जाएँ, पर यादें उनकी मुझे हर पल उसके पास ही रखती हैं...  यह मेरे इस ब्लॉग की पचासवीं कविता (पोस्ट) है और इस ख़ुशी के मौके पे मैं अपने सभी दोस्तों की कमी महसूस कर रहा हूँ क्योंकि आज जो भी हूँ उन्ही की बदौलत हूँ, अगर वे न होते तो शायद मैं आज ब्लॉग जगत से और ब्लॉग जगत मुझसे अनभिज्ञ रहता... 
I miss you my friends...

गुरुवार, 9 जून 2011

वक्त-ए-कश्मकश...

वो कहते थे कि तेरे बगैर दिल कहीं लगता नहीं "माही",
पर वो मेरा दो पल भी इंतज़ार ना कर सके... 

के दो पल की और ज़िन्दगी मांगने गया था मैं खुदा से उसकी खातिर,
जो कभी वादे पे मेरे ऐतबार ना कर सके...

या खुदा ! खूब देखा तेरी भी रहमत का नज़ारा हमने,
के दे दी ज़िन्दगी फिर उसके लिए, जो हमसे फिर कभी प्यार ना कर सके...

और अब तन्हा हैं ये सोच के,
के शायद हम ही कभी उनसे अपने वादे का ठीक से इज़हार ना कर सके...

आज रो रहे हैं के गम-ए-फुरकत से सामना होगा अब हमारा,
के क्यों हम तुमसे कभी इकरार ना कर सके ?

और जाने वो कैसा वक्त-ए-कश्मकश था "माही"
जब हम भी तेरे प्यार को इन्कार ना कर सके...?

महेश बारमाटे "माही"
9th June 2011

मंगलवार, 31 मई 2011

मैं तो बस मोमबत्ती हूँ...

तिल-तिल करके जलती हूँ,
जग को रौशन करती हूँ,
शाम से लेकर रात तक
हर बूँद मैं पिघला करती हूँ...

अंधियारे के संग लड़ती हूँ,
हर पल खुद का दमन करती हूँ,
जल-जल के ही तो मरती हूँ,
के हर बूँद मैं पिघला करती हूँ...

किसी ने यूँ ही,
तो किसी ने मूर्त (रूप) देके मुझको जलाया,
गम इसका कभी नहीं करती हूँ,
के हर बूँद मैं पिघला करती हूँ...

मेरी हर मौत को उसने,
न जाने कैसे था भुलाया,
के जब भी जला करती हूँ,
घर उसका रौशन करती हूँ...

मेरी शमा को देख के,
कभी कोई परवाना भी था इतराया,
जला के उसको भी मैं,
नाम उसका रौशन करती हूँ...

मैं तो बस मोमबत्ती हूँ 
हर लौ में जला करती हूँ
कभी उफ़ भी नहीं करती हूँ 
के हर बूँद मैं पिघला करती हूँ...

मत भूल मेरे वजूद को "माही",
मैं तो बस एक मोमबत्ती हूँ,
सदियों पहले जो करती थी,
वो आज भी किया करती हूँ...

घर तेरा रौशन करती हूँ,
और अंधियारे से भी लड़ती हूँ,
मर के भी जिंदा रहती हूँ,
के हर बूँद को जिया करती हूँ...

महेश बारमाटे "माही"
२५ मई २०११ 

गुरुवार, 26 मई 2011

अब ये दर्द सहा नहीं जाता

कभी कभी किसी का मजाक
किसी को दर्द दे जाता है...
या अल्लाह ! तू ऐसे रिश्ते आखिर किस लिए बनाता है ?

 के दिल दुखता होगा तेरा भी...
जब कोई इन्सां किसी की मौत बन जाता है.

किसी का चैनो-सुकून छीन के वो
अपनी नयी दुनिया बसाता है.

और फिर कोई तीसरा आकर,
तेरी कायनात को ज़मीन के टुकड़ों में बाँट जाता है.

तेरे ही नाम पर खुद को तेरा
अजीज़ बताने वाला इन्सां, मज़हबी दंगे करवाता है.


कोई अपनी माँ का
तो कोई सारे हिन्दुस्तां का 
दिल चीरता चला जाता है.
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
हे परम पिता परमेश्वर !

क्या इसी तरह की तू दुनिया बनाना चाहता है ?

क्या तेरे दिल में दर्द नहीं होता,
जब एक छोटा सा मजाक दो दिलों को तन्हा कर जाता है ?

जब एक सच्चा दोस्त,
अपने दोस्त को रुसवा कर जाता है ? 
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
ऐ खुदा !

मालुम है के तुझे भी
हमारा दुःख तन्हा कर जाता है...

तेरी ही दुनिया में हर इन्सां
तुझे ही रुसवा कर जाता है...

तो फिर तोड़ के सारे बंधन
आजा हमें गले लगा ले,
ले अब तो तन्हा रहा नहीं जाता है...
और तेरी तन्हाई का भी
दर्द सहा नहीं जाता है...

के लाख मर्तबा टूट चूका है "माही"
तेरे इंतजार में,
अब तो इस सारी कायनात से
 तेरे बिन रहा नहीं जाता है...

महेश बारमाटे "माही"
17th March 2011

सोमवार, 16 मई 2011

कहाँ बनाऊं मैं अपना शीशे जैसा महल...

कहाँ बनाऊं मैं अपना शीशे जैसा महल,
अब तो हर एक के हाथ में पत्थर नज़र आता है.

कहाँ छुपाऊं मैं इन अश्कों इन आंसुओं को,
अब तो हर एक कतरा समंदर नजर आता है...

दिल का अफसाना दिल में ही रह गया,
जिसे सुनाना चाहता था, वह दोस्त भी कहीं खो गया.
किसे बताऊँ अब अपने दिल का हाल,
अब तो हर दोस्त सितमगर नज़र आता है...

रकीबों की साजिश ने, उसको भी मेरा दुश्मन बना दिया,
मेरी यादों को उसने, न जाने कैसे भुला दिया ?
पर आज भी इन आँखों को मेरा इंतजार करता, वो मेरा दिलबर नज़र आता है...

कहाँ बनाऊं मैं अपना शीशे जैसा महल,
अब तो हर एक के हाथ में पत्थर नज़र आता है.

जब तक मेरा हमसफ़र मेरे पास था,
उसका हर एक साया मेरे साथ था.
पर आज तो वह सिर्फ मेरे ख्वाबों में ही आता है,
और आकर कमबख्त बड़ा सताता है,
फिर भी मेरा दिल आज भी उस पर ही प्यार बरसाता है.

तरस गयी हैं आँखे उसका दीदार करने को,
नूर न रहा और अब आँखें भी चली गयीं मेरी,
अब तो इस बेजान शरीर को बस उसी का सहारा नज़र आता है.

उसकी जुदाई ने मेरी हालत ऐसी है कर दी,
के अब तो मुझे हर जगह,
मौत का खंज़र नज़र आता है..
और आज मेरी मौत का मुझे,
सच होता मंज़र नज़र आता है...

- विकास तिवारी और महेश बारमाटे "माही" (VBar)
१० जुलाई २००८...

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नोट - ये कविता मैंने अपने कॉलेज के दोस्त विकास तिवारी के संग मिलकर कॉलेज के दिनों में लिखी थी. उसके साथ मिलकर हमने २ - ३ और भी कवितायें लिखीं. और हमने अपने इस लेखन को नाम देने के लिए एक नया नाम सोचा था "वी बार (VBar)"... 
आज विकास मेरे पास नहीं पर मुझे यकीन है की हम फिर एक दिन फिर से और भी कवितायें लिखेंगे... 

बुधवार, 11 मई 2011

तड़प

मेरा चाँद न जाने कहाँ खो गया है,
लगता है जैसे बादलों की ओंट में छुपकर कहीं सो गया है...

बस उसी को ढूँढती है मेरी नज़र
अब तो हर रात,
न जाने कब कटेगी ये
अमावस की ये काली अँधेरी रात.

उसको देखे न जाने कितने हो गए हैं बरस,
बस उसी के लिए ये आँखे अब तक रही हैं तरस.

उसके बगैर मैं अब चाँद का चकोर हो गया हूँ.
लोग भी कहने लगे हैं के मैं तो अब, पंख कटा मोर हो गया हूँ.

फिर भी दिल में एक आस है
के मैं ढूँढ निकालूँगा उसे 
और मिल जाये तो
इस दिल के मन-मंदिर में सजा लूँगा उसे...


मेरे मन में उससे मिलने की बड़ी आस है,
क्योंकि उसकी एक तस्वीर आज भी मेरे दिल के बहुत पास है.

मैंने तो बस उससे ही मिलने की चाहत की है 
ज़िन्दगी में पहली और आखिरी बार बस उसी से मुहब्बत की है...

इसीलिए ऐ कायनात!
तू अब मुझे मेरा चाँद दिखा दे,
मेरे इतने बड़े इंतजार का मुझे
कुछ तो सिला दे.

कहीं ऐसा न हो के उसे देखे बगैर ही 
मैं इस दुनिया से चला जाऊँ.
जिसकी एक झलक झलक के लिए जी रहा हूँ मैं,
उसको कभी देख ही न पाऊँ.

उसकी यादें ही अब मेरे जीने का एक मात्र सहारा है,
इस दिल के आसमाँ एक बार करे वो रौशन,
बस यही आखिरी अरमाँ हमारा है.

के उसको देखे बागी इस जहाँ से मैं जाना नहीं चाहता.
जिंदगी की आखिरी ख्वाहिश में मैं,
उसके सिवा और किसी को पाना नहीं चाहता...

महेश बारमाटे "माही"

सोमवार, 9 मई 2011

चाहत मेरी...

दिल जानता था ये बात,
के न दोगी कभी तुम मेरा साथ...

फिर भी मैंने तुमसे ही प्यार किया,
दिल के बदले दर्द-ए-दिल मैंने तुमसे ही लिया...

प्यार क्या होता है, ये मैंने न था कभी जाना,
और तुमसे मिलकर ही मैंने था शायद इसे पहचाना.
पर जब खाया मैंने तुमसे धोखा,
तो लगा के शायद अब भी हूँ मैं सच्चे प्यार से अनजाना...

गलती मेरी ही थी शायद,
जो मैंने इसे प्यार समझा...
रहना था दूर जिससे मुझे,
उसे ही अपना दिलबर, अपना दिलदार समझा...

तुम्हे अपना समझ के मैंने,
"मैं क्या हूँ ?" ये भी तुमको बताया...
इशारों - इशारों में ही सही,
अपना हाल-ए-दिल भी मैंने तुमको समझाया...

पर मुझे क्या पता था, के तू अपने जैसा सबको समझेगी,
मेरे प्यार को महज एक दिल्लगी समझेगी...

मेरी हर कहानी में तुम थी,
मेरी हर कविता में भी तुम थी...
आँखों से जो कभी बहे, उस पानी में तुम थी...
मेरे दिल ने जो चाही थी लिखनी,
हर उस कहानी में भी तुम थी...

पर अब तू मेरे लिए, सिर्फ एक कहानी हो गई है...
तेरी हर एक अदा मेरे लिए, अब पुरानी हो गई है...

क्योंकि जो कुछ लिखा था मैंने तेरे लिए,
उसकी आज ये दुनिया दीवानी हो गई है...
मैं भूल चूका हूँ तुझे,
और तू अब दुनिया की भीड़ में खड़ी अनजानी हो गई है...

मुझे पता है के ये बातें सुनकर भी,
तुझको कोई फर्क नहीं पड़ेगा...
मेरी किसी बददुआ से भी तुझको,
कभी नर्क नहीं मिलेगा...

क्योंकि मैं चाहता हूँ के तुझको
दुनिया भर की हर ख़ुशी मिले...
और उस हर एक ख़ुशी में तुझको,
हर बार मेरी ही कमी मिले...

- महेश बारमाटे "माही"
२२ अप्रेल २००८ 

जरा यहाँ भी गौर फरमाइए... 

शनिवार, 7 मई 2011

विश्वास

ज़िन्दगी में अगर चुनना पड़े,
दो में से कोई एक राह...
तो ऐ मेरे यार!
मेरी एक बात तुम रखना याद,
के "जहाँ चाह, वहाँ राह"...

इसीलिए हमेशा अपनी एक ही मंजिल पे
तुम रखना निगाह...
एक रास्ता गर हो जाए बंद, 
तो बदल देना तुम अपनी राह...

पर मंजिल पर निगाहें, हमेशा जमाये रखना...
अपने दिल में जीत के लिए ललक जगाये रखना...

तुम जरूर जीतोगे,
अगर तुमको है विश्वास...
और गर कभी टूटने न दो,
अपनी ये आस.

चाहे रुक जाये तुम्हारी सांस,
"तुम जरूर जीतोगे"
ऐसा मेरा है - "विश्वास

- महेश बारमाटे "माही"

नोट - ये कविता मैंने तब लिखी थी जब मुझे लिखने की समझ न थी... आशा करता हूँ की आपको ये कुछ हद तक ही सही पसंद जरूर आएगी...

मंगलवार, 26 अप्रैल 2011

दूरियाँ हैं बढ़ने लगीं दरमियाँ हमारे...

अनचाही सरहदें हैं खिंचने लगीं, अब दरमियाँ हमारे...
बेवजह ही दूरियाँ हैं बढ़ने लगीं, अब दरमियाँ हमारे...

तेरा आना ज़िन्दगी में मेरी,
अब एक ख्वाब हो गया है.
के पल-पल में ही टूटने लगे हैं रिश्ते,
अब नींद और दरमियाँ हमारे...

जनता हूँ के हम कुछ भी न थे कभी ज़िन्दगी में उनकी,
पर दूरियाँ इतनी भी न थी कभी दरमियाँ हमारे...

अब तो लगता है 
के जान - पहचान का ही रह गया है
बस रिश्ता दरमियाँ हमारे...

के आज उसका शोना - माही
छिपने लगा है वक़्त की धुंध में,
के जब से अजनबी कोई,
इश्क उनका बन के आया है दरमियाँ हमारे...

ऐ सनम ! एक बार तो जरा,
इनायत कर मुझ पे ओ निर्ज़रा !
के लगता है आज मौत खड़ी है,
फिर रिश्तों के दरमियाँ हमारे...

आज फिर है देख रहा ये माही !
खुद को एक दो-रहे पर खड़ा...
के तेरी सोच के संग ऐ सनम !
बदलने लगा है अब सब कुछ,
बस दरमियाँ हमारे...

महेश बारमाटे "माही"
26th Apr. 2011

बेवफा

जब उनको दिल लगाना न आया,
तो उन्होंने हमसे दिल्लगी कर ली.
पर हम तो समझे इसे दिल की लगी,
और इश्क में उनके हमने, खुदकुशी कर ली.

जब मेरी मौत पर उन्होंने, दो आँसू बहाए तो लगा,
के मेरी मुहब्बत को ज़न्नत मिल गया...
पर उनके झूठे अश्कों की धार में
मेरा सारा वहम धुल गया...

मुझे लगा के वो भी मुझसे सच्चा प्यार करते हैं,
पर वो तो एक आशिक के दिल से सिर्फ खिलवाड़ करते हैं.

उन्होंने जब माँगी,
तो उनके इश्क में हमने भी दे दी जान,
पर वो आज तक न सके,
कभी मेरे प्यार को पहचान...

मेरी मौत को वो भूल गए, एक दुर्घटना समझ कर.
और मेरे साथ को वो भूल गए, शायद एक बुरा सपना समझ कर.

तभी तो आज मेरी मुहब्बत ही मुझ पर हँस रही है
जैसे कोई नागिन, फन फैलाये मुझे डस रही है.

अब उनको कैसे मैं कह दूँ, "बेवफा"
जब मेरी किस्मत ने ही न की कभी मुझसे कोई वफ़ा ?

इसलिए ऐ सनम !
आज मैं तुझको माफ़ करता हूँ...
तुझे न मिले कभी ऐसा कोई धोखा,
यही खुदा से आज मैं फरियाद करता हूँ...

महेश बारमाटे "माही"
27th Oct. 2007

सोमवार, 25 अप्रैल 2011

वादा...

वो कर गए हम से एक वादा,
निभाने का ये वादा,
के "हम आयेंगे मिलने आपसे, तब - तब,
आप करेंगे हमको याद जब - जब".

मुझको लगा उनकी ये बात, मेरी तकदीर बन गई.
मेरे दिल में भी उनकी एक सुन्दर तस्वीर बन गई. 

पर न आये वो और न आया उनका कोई ख़त.
इतना होने के बाद भी, ये दिल कहता है के "रो मत".

क्योंकि मैं भूल गया था कि
"कुछ लोगों के लिए,
वादा तो बस वादा होता है.
इसमें उनके लिए सच कम
और झूठ ज्यादा होता है".

अब कहता हूँ दुनिया वालों से के 
"करना न कभी किसी से तुम ऐसा वादा,
जिससे मिले ख़ुशी तुमको चाहे कम,
पर दर्द होगा उसको ज्यादा"...

महेश बारमाटे (माही)
१३ मई २००७

रविवार, 24 अप्रैल 2011

तेरा ही इंतजार...

कितनी हसरतों से मैंने, तुझसे दिल लगाया था.
एक तेरे लिए ही सारी दुनिया को ठुकराया था.

तेरी हर मुस्कान पे, अपना दिलो-जाँ लुटाया था.
तेरे लिए ही तेरे सरे गमो को अपनाया था.

खुद रोकर भी तुझको,मैंने हँसना सिखाया था.
तन्हाइयों में अपने दिल के करीब तुझको ही पाया था.

पर जाने क्यों तुझे मुझ पर एतबार न हुआ,
जाने क्यों तुझे कभी मुझसे प्यार न हुआ...

क्यों तू मुझसे हो गई इतनी खफ़ा,
के लोग कहने लगे हैं, आज तुझे ही बेवफा ?

पर दिल अब भी कहता है मेरा, के तू मेरे लिए बेवफा नहीं.
मेरी जुबाँ जो भी कहे, पर अब तू इस दिल से जुदा नहीं...

क्योंकि मैंने तुझसे ही किया है प्यार,
जो होता है बस एक बार.
कल भी करता था,
आज भी कर रहा हूँ.
और हमेशा करता रहूँगा,
मैं...
सिर्फ और सिर्फ
तेरा ही इंतजार...

महेश बारमाटे
27th July 2008

गुरुवार, 14 अप्रैल 2011

आज भी...

प्यार नहीं करता हूँ मैं अब तुझसे
पर मेरे हर पल पे मुझे तेरा इंतजार आज भी है.

करीब है मेरी मौत भी अब मेरे,
पर मुझे तेरे वादे पे एतबार आज भी है.

मुझे तेरी हर एक "न"
तेरे और भी करीब ले आती है,
के मुझे तेरी बस आखिरी "हाँ" का इंतजार आज भी है.

पता नहीं वो दिन कब आएगा,
जब तेरा दिल सिर्फ मुझको चाहेगा ?
तेरी चाहत भरी इक निगाह के लिए
ये दिल बेक़रार आज भी है.

खतागर हूँ, तभी तो तुझको,
क्या कुछ न बोल बैठा मैं,
पर तेरे रहम-ओ-करम का
"महेश" हक़दार आज भी है.

मुझसे प्यार करना शायद
तेरी किस्मत में कभी रहा ही नहीं,
पर 'माही',
तेरी किस्मत पे मुझे ऐतबार आज भी है.

- महेश बारमाटे
11 April 2008