बुधवार, 28 मई 2014

मेरी हकीकत...


जो छुपा ही नहीं
उसे कैसे करूँ उजागर
मेरी हकीकत
आ जान ले तू
एक बार मेरे करीब आकर।

के मेरी कहानी
एक खुली किताब
जिसमें हैं कुछ भेद
और कुछ राज़
बेहिसाब ।

हर पन्ने की हकीकत को
जरा नजदीक से तू पढ़
और फिर जो है सच्ची कहानी
तू अपनी जुबानी
ख्वाबों में तू गढ़।

तेरी रूह का नूर
और मेरा गुरूर
जैसे मैं कोई कतरा
और तू जन्नत की हूर।

बस है आज
जुबां पे मेरे
मेरी कहानी
हँसते लबों के बीच
जैसे
अश्कों का बहता पानी।

पानी में है एक नैया
खोती जा रही है ऐसे
क्षितिज पे मिल रहे हों
जमीन-ओ-आसमां जैसे।

अब कहाँ है जमीन
और आसमां मेरा
तू खुद ढूँढ
कौन था मैं
और क्या हूँ तेरा।

एक अक्स
एक एहसास
तुझसे बहुत दूर
फिर भी हूँ
तेरे पास।

पास इतना
के तुझे मुझ पे एतबार नहीं
और दूर हूँ
के मैं तेरा प्यार नहीं।

फिर भी एक इल्तिजा है
के जान मुझे
आ जा
और करीब से पहचान मुझे।

कर दे उजागर
मेरी हकीकत
परिंदे सी क़ैद ज़िंदगी
फ़ना कर
मेरी शिद्दत।

हर बार की तरह
फिर एक बार
मेरा हो जा
ओ मेरे माही!
रास्तों को बदल
थोड़ा मेरी तरफ भी तो चल
बस कुछ पल
बन के मेरा
बस मेरा
हमराही...।

- महेश बारमाटे "माही"

गुरुवार, 15 मई 2014

किसके लिए ?


दिल करता है आज जरा रो लूँ
पर किसके लिए ?
ज़िंदगी भर के पाप आज
अश्कों की बारिश में धो लूँ
पर किसके लिए ?

मेरा दर्द – ओ – दवा बस तू है,
अब कुछ महसूस करूँ भी तो किसके लिए ?

तू जानता है मेरे हर मर्ज की दवा
आज मैं बीमार पड़ूँ भी तो किसके लिए ?

इश्क़ – ओ – ग़म आज दोनों हैं मुझे तुझसे
इज़हार करूँ भी तो किसके लिए ?

मेरा दिल, मेरी जां
सब तेरे नाम कर दिया है माही!
आज तुझे मैं प्यार करूँ भी तो
किसके लिए ???

- महेश बारमाटे "माही"

सोमवार, 5 मई 2014

मैं...

तेरे इश्क़ की
आवाजें सुनता मैं। 
अब हर पल
तेरी धड़कनों से
बातें करता मैं ।

कभी इस जहां, कभी उस जहां
कभी दरिया तो कभी सहरा
बस तुझे ही ढूँढता फिरता मैं।

जी रहा हूँ इस कदर
दर-ब-दर, दर-ब-दर
हर गली हर शहर
तेरे ही नगमें गाता मैं।

ज़िंदगी एक ख्वाब हो
या सफर...
जुदा हो के भी
बस तुझमे समाता मैं।

तेरी कहानी
का हर लफ्ज
मेरी आँखों से पढ़ ले
के हर किस्से में
खुद में ही खोता जाता मैं।

आज मुझमे और तुझमे
क्या फर्क है बचा माही!
कभी तू मुझमे
कभी तुझमे समाता मैं।


- महेश बारमाटे "माही"

शुक्रवार, 2 मई 2014

मजबूरियाँ

कुछ वर्ष पहले, जब मैंने लिखना शुरू किया था, बस उनही दिनों की यादों को याद करता मैं, आज अपनी डायरी पढ़ रहा था, तो एक अनमोल नगीना मिला। सोचा कि कुछ छोटे - छोटे फेर बदल के बाद आपके साथ साझा कर लूँ। 


मिल के भी मिल न सके हम
जाने वो क्या मजबूरी थी?
फासले तब हो चुके थे सारे कम,
पर जाने कैसी दूरी थी?

तेरी एक चहक से
महक उठा था मेरा सारा आलम
तब जिसने भी देखा
तुझे देना चाहता था अपना मन
तुझमे जाने कैसी जादूगरी थी?

सोचा था,
इज़हार करूंगा मैं तुझसे
जब हल्की सी धूप खिली थी।
सारा जहां महक रहा था उस पल,
फिजा में बस तेरी महक घुली थी।

हमारे इश्क़ को शायद
लग गई थी किसी की नज़र
जिससे हम थे जाने क्यों बेखबर?
समय पर मैं आ न सका
और तुझे पा न सका,
मेरी भी जाने ये कैसी मजबूरी थी?

मेरी आँखों के सामने
तू किसी और की हो गई
ऐसा लगा जैसे मेरी किस्मत
एक बार फिर सो गई,
पर बिन तेरे ये ज़िंदगी
अब भी अधूरी थी।

फिर भी आज बिन तेरे जी रहा हूँ मैं
ग़म – ए- जुदाई घुट – घुट के पी रहा हूँ मैं।
हमारे दरमियाँ पहले कभी न इतनी दूरी थी...

बहार में भी हमारे प्यार का गुल खिल न सका
उसकी भी कोई न कोई तो मजबूरी थी।
हम मिल के भी मिल न सके
तेरे – मेरी माही!
जाने क्या मजबूरी थी...?

- महेश बारमाटे "माही"