गुरुवार, 9 जून 2011

वक्त-ए-कश्मकश...

वो कहते थे कि तेरे बगैर दिल कहीं लगता नहीं "माही",
पर वो मेरा दो पल भी इंतज़ार ना कर सके... 

के दो पल की और ज़िन्दगी मांगने गया था मैं खुदा से उसकी खातिर,
जो कभी वादे पे मेरे ऐतबार ना कर सके...

या खुदा ! खूब देखा तेरी भी रहमत का नज़ारा हमने,
के दे दी ज़िन्दगी फिर उसके लिए, जो हमसे फिर कभी प्यार ना कर सके...

और अब तन्हा हैं ये सोच के,
के शायद हम ही कभी उनसे अपने वादे का ठीक से इज़हार ना कर सके...

आज रो रहे हैं के गम-ए-फुरकत से सामना होगा अब हमारा,
के क्यों हम तुमसे कभी इकरार ना कर सके ?

और जाने वो कैसा वक्त-ए-कश्मकश था "माही"
जब हम भी तेरे प्यार को इन्कार ना कर सके...?

महेश बारमाटे "माही"
9th June 2011

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