जग को रौशन करती हूँ,
शाम से लेकर रात तक
हर बूँद मैं पिघला करती हूँ...
अंधियारे के संग लड़ती हूँ,
हर पल खुद का दमन करती हूँ,
जल-जल के ही तो मरती हूँ,
के हर बूँद मैं पिघला करती हूँ...
किसी ने यूँ ही,
तो किसी ने मूर्त (रूप) देके मुझको जलाया,
गम इसका कभी नहीं करती हूँ,
के हर बूँद मैं पिघला करती हूँ...
मेरी हर मौत को उसने,
न जाने कैसे था भुलाया,
के जब भी जला करती हूँ,
घर उसका रौशन करती हूँ...
मेरी शमा को देख के,
कभी कोई परवाना भी था इतराया,
जला के उसको भी मैं,
नाम उसका रौशन करती हूँ...
मैं तो बस मोमबत्ती हूँ
हर लौ में जला करती हूँ
कभी उफ़ भी नहीं करती हूँ
के हर बूँद मैं पिघला करती हूँ...
मत भूल मेरे वजूद को "माही",
मैं तो बस एक मोमबत्ती हूँ,
सदियों पहले जो करती थी,
वो आज भी किया करती हूँ...
घर तेरा रौशन करती हूँ,
और अंधियारे से भी लड़ती हूँ,
मर के भी जिंदा रहती हूँ,
के हर बूँद को जिया करती हूँ...
महेश बारमाटे "माही"
२५ मई २०११
महेश भाई मोमबत्ती की अजब दर्द भरी कहानी बहतरीन अल्फाजों में प्रस्तुतिकरण के लियें बधाई हो ..अख्तर खान अकेला कोटा राजस्थान
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया ...
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर लगी यह रचना , बधाई
जवाब देंहटाएंकाफी अच्छी रचना, बधाई !!
जवाब देंहटाएंमोमबत्ती के बहाने बहुत कुछ कह दिया आपने।
जवाब देंहटाएंबधाई।
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विश्व तम्बाकू निषेध दिवस।
सहृदय और लगनशीन ब्लॉगर प्रकाश मनु।
बहुत बहुत धन्यवाद आप सभी का...
जवाब देंहटाएंबेहतरीन शाब्दावाली से सजी रचना ,अच्छा सन्देश
जवाब देंहटाएंkya baat hai maahi hamesha ki tarah abhi bhi aapne apney zabardast alfaazo main ek meaningful msg diya hai bohut khoob :D
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