रविवार, 12 अक्तूबर 2014

चल आज.. बड्डे मनाते हैं।


चल आज..
बड्डे मनाते हैं।

खो गए हैं वक़्त की धुंध में जो दोस्त
आज उन्हें ढूँढ के लाते हैं।

चल आज..
बड्डे मनाते हैं।

चंद खुशियाँ भी खो गई हैं संग उनके
चल वो भी बंटोर के लाते हैं।

चल आज..
बड्डे मनाते हैं।

वो मम्मी के हाथ से बना केक
वो पापा के दिए नए कपड़े और खिलौने
बड़े भाई-बहनों के हाथों से मिठाइयाँ खाते हैं।
चल आज..
बड्डे मनाते हैं।

फिर सजेगा आज कमरा मेरा
फिर लगेंगे आज गुब्बारे
एक बड़े गुब्बारे में भैया से टाफियाँ भरवाते हैं
चल आज..
बड्डे मनाते हैं।

कुछ खेल और नाच - गाना होगा
ये दिल फिर दोस्तों के गिफ्ट्स का दीवाना होगा
सारे दोस्त, एक - एक कर सब गुब्बारे फोड़ जाते हैं
चल आज..
बड्डे मनाते हैं।

वो मोहल्ले भर में बाँटते हम खुशियाँ
और हम दोस्तों की वो रंगरलियाँ
चल हर गली, अपने बड्डे का शोर मचाते हैं
चल आज..
बड्डे मनाते हैं।

इस काम काज की भाग - दौड़ में
पैसे कमाने की झूठी होड़ में
वो भूली बिसरी कहानियाँ
चल आज सुनते और सुनाते हैं
चल आज..
बड्डे मनाते हैं।

ज्यादा नहीं, बस चार दोस्तों को बुलाते हैं
जुदाइयों से भरी, किस्मत से आज लड़ जाते हैं
एक दिन के लिए, ज़िन्दगी को वापस बुलाते हैं
और ज़िन्दगी के पेड़ से, बचपन की यादें तोड़ लाते हैं।

चल न यार..!
आज बड्डे मनाते हैं।

- महेश बारमाटे "माही"

बुधवार, 8 अक्तूबर 2014

वो पहली बार...



तुम एक सपने में आई थी
सपना छोटा सा था
और तुम मुस्कुराई थी
एक कोई दोस्त भी था साथ तुम्हारे
और मेरे दोस्तों ने महफ़िल जमाई थी।

बैठी थी तुम मुझसे चिपक के
और हर बात पे अपनी मौजूदगी जताई थी।

कुछ शरारतें की
थोड़ी बहुत बातें की
तुम्हारी शरारतों पे कुछ
हिदायतें मैंने भी समझाई थी।

फिर भी तुम्हें कोई भी
बात समझ में न आई थी।
आज पहली बार
हाँ! शायद पहली बार तुम
सपने में आई थी।

अचानक ही टूटा सपना
और आँख खुल गई
खुलते ही आँख
ख़ुशी के आंसुओं से भर आई थी।

क्योंकि आज तुम्हारी शरारतें
मुझे सचमुच भायी थी
पहली बार माही!
तुम सपने में आई थी।

-महेश बारमाटे "माही"

रविवार, 5 अक्तूबर 2014

आज जरा जी लेने दे मुझे...


आ भर लूँ बांहों में तुझे
कि आज जी लेने दे मुझे।

ये तरसती निगाहें
और खुली मेरी बाहें
तू इन धड़कनों की प्यास है
क्या कहती हैं धड़कने तेरी
आज सुनने दे मुझे।

मेरी प्यास है तू
एक अन्जाना एहसास है तू
लिखा है नाम मेरा
हाथों की लकीरों में तेरी
एक बार फिर पढ़ने दे मुझे।

ये लबों की सुर्खी मेरी
बस तेरे नाम से है माही!
है इश्क़ तुझसे
कि आज लबों को लबों से
छू लेने दे मुझे।

आज जरा जी लेने दे मुझे...।

-महेश बारमाटे "माही"