गुरुवार, 25 अक्तूबर 2012

मेरा मन...


कुंठाओ से घिरा हुआ ये मन
आज पुकार रहा है तुम्हें
के तुम कहाँ हो
कहाँ हो तुम के ये दिल अब
बिन तुम्हारे न तो जी रहा है और न मर रहा है
बस तुम से मिलने की आखिरी आस में
आज तो ये अपनी आखिरी साँस  में
तुम्हारा ही नाम बार बार
कभी दिल के इस पार तो कभी उस पार
बस यूं ही
शायद बेवजह
या शायद एक वजह से ही
तुम्हारा नाम
अपने नाम के साथ
हर जगह
लिख रहा है...

- इंजी॰ महेश बारमाटे "माही"
25/10/2012

मंगलवार, 9 अक्तूबर 2012

मैं... आज फिर... लिख रहा हूँ...

आज...
लिख रहा हूँ...
हाँ ! मैं  फिर लिख रहा हूँ...

पर क्यों ?
क्यों छोड़ा था मैंने...
लिखना...?

क्या...?
भूल गया था मैं...
खुद से ही कुछ...
सीखना...?

जाने कितने...
मंज़र बीत गए...
और दिल को कितने...
खंजर चीर गए... ?

फिर भी क्यों...?
हाँ... हाँ क्यों...?
मैं कुछ लिख न पाया...?
देख के कई... सपने...
मैं खुद सपनों सा क्यों,
दिख न पाया... ?

देखो आज फिर,
लिख रहा हूँ...
फिर एक नई शुरुआत करना
सीख रहा हूँ...

हाँ!
हाँ! आज मैं कुछ...
लिख रहा हूँ...

माही !
लिख रहा हूँ न ? ...


इंजी० महेश बारमाटे "माही"
9 Oct 2012
10:35 pm