फिर भी न जाने क्यों, हर दम मैं तन्हा ही रहा...?
दिल से मिल के मैंने,
दी हर किसी को इस दिल में पनाह,
फिर भी जाने क्यों हर दम,
मैं बेपनाह ही रहा?
हर कश्ती का मुसाफिर मुझसे,
रास्ता पूछता गया
और खुद समंदर में होके भी मैं,
साहिल की तलाश में प्यासा ही रहा...
किसका रास्ता देखूँ अब मैं,
के हर एक मुसाफिर है यूँ निकल गया,
के दिल का ज़हां,
मेले में भी हरदम वीराना ही रहा...
किसी ने कहा था मुझसे,
के ये दौर यूँ ही गुजर जायेगा...
और बीते दिन याद करता मैं.
बीती रात बस रोता ही रहा...
देखो कैसे भूल बैठा है, मेरा "माही"!
के मैं भी कभी संग था उसके
और दिल में हर - पल,
उसकी मुहब्बत का आँसू हरदम,
बस चमकता ही रहा...
महेश बारमाटे "माही"
८ मई २०११
सार्थक प्रस्तुति आभार .
जवाब देंहटाएंइतने सारे खूबसूरत एहसास एक साथ ...
जवाब देंहटाएंकैसे समेटे इन्हें एक टिप्पणी में
बहुत ख़ूबसूरत हमेशा की तरह ...!
करीब १५ दिनों से अस्वस्थता के कारण ब्लॉगजगत से दूर हूँ
जवाब देंहटाएंआप तक बहुत दिनों के बाद आ सका हूँ,
धन्यवाद शिखा जी !
जवाब देंहटाएंसंजय जी आप तो खुद ही लाजवाब हैं...
भगवान् करे की आपके स्वास्थ्य को हमेशा बरक़रार रखे.. धन्यवाद
महेश भाइ्र, आपका अंदाजे बयां सचमुच बहुत प्यारा है।
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तांत्रिक शल्य चिकित्सा!
…ये ब्लॉगिंग की ताकत है...।