बुधवार, 11 मई 2011

तड़प

मेरा चाँद न जाने कहाँ खो गया है,
लगता है जैसे बादलों की ओंट में छुपकर कहीं सो गया है...

बस उसी को ढूँढती है मेरी नज़र
अब तो हर रात,
न जाने कब कटेगी ये
अमावस की ये काली अँधेरी रात.

उसको देखे न जाने कितने हो गए हैं बरस,
बस उसी के लिए ये आँखे अब तक रही हैं तरस.

उसके बगैर मैं अब चाँद का चकोर हो गया हूँ.
लोग भी कहने लगे हैं के मैं तो अब, पंख कटा मोर हो गया हूँ.

फिर भी दिल में एक आस है
के मैं ढूँढ निकालूँगा उसे 
और मिल जाये तो
इस दिल के मन-मंदिर में सजा लूँगा उसे...


मेरे मन में उससे मिलने की बड़ी आस है,
क्योंकि उसकी एक तस्वीर आज भी मेरे दिल के बहुत पास है.

मैंने तो बस उससे ही मिलने की चाहत की है 
ज़िन्दगी में पहली और आखिरी बार बस उसी से मुहब्बत की है...

इसीलिए ऐ कायनात!
तू अब मुझे मेरा चाँद दिखा दे,
मेरे इतने बड़े इंतजार का मुझे
कुछ तो सिला दे.

कहीं ऐसा न हो के उसे देखे बगैर ही 
मैं इस दुनिया से चला जाऊँ.
जिसकी एक झलक झलक के लिए जी रहा हूँ मैं,
उसको कभी देख ही न पाऊँ.

उसकी यादें ही अब मेरे जीने का एक मात्र सहारा है,
इस दिल के आसमाँ एक बार करे वो रौशन,
बस यही आखिरी अरमाँ हमारा है.

के उसको देखे बागी इस जहाँ से मैं जाना नहीं चाहता.
जिंदगी की आखिरी ख्वाहिश में मैं,
उसके सिवा और किसी को पाना नहीं चाहता...

महेश बारमाटे "माही"

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