मंगलवार, 26 अप्रैल 2011

दूरियाँ हैं बढ़ने लगीं दरमियाँ हमारे...

अनचाही सरहदें हैं खिंचने लगीं, अब दरमियाँ हमारे...
बेवजह ही दूरियाँ हैं बढ़ने लगीं, अब दरमियाँ हमारे...

तेरा आना ज़िन्दगी में मेरी,
अब एक ख्वाब हो गया है.
के पल-पल में ही टूटने लगे हैं रिश्ते,
अब नींद और दरमियाँ हमारे...

जनता हूँ के हम कुछ भी न थे कभी ज़िन्दगी में उनकी,
पर दूरियाँ इतनी भी न थी कभी दरमियाँ हमारे...

अब तो लगता है 
के जान - पहचान का ही रह गया है
बस रिश्ता दरमियाँ हमारे...

के आज उसका शोना - माही
छिपने लगा है वक़्त की धुंध में,
के जब से अजनबी कोई,
इश्क उनका बन के आया है दरमियाँ हमारे...

ऐ सनम ! एक बार तो जरा,
इनायत कर मुझ पे ओ निर्ज़रा !
के लगता है आज मौत खड़ी है,
फिर रिश्तों के दरमियाँ हमारे...

आज फिर है देख रहा ये माही !
खुद को एक दो-रहे पर खड़ा...
के तेरी सोच के संग ऐ सनम !
बदलने लगा है अब सब कुछ,
बस दरमियाँ हमारे...

महेश बारमाटे "माही"
26th Apr. 2011

15 टिप्‍पणियां:

  1. दिल का दर्द तो प्यार करने वाला ही समझ सकता है..लाजवाब।

    जवाब देंहटाएं
  2. अपने दिल के करीब लगी यह रचना...जो दिल को छू जाए...वही रचना प्रभावशाली होती है...

    जवाब देंहटाएं
  3. अपने दिल के करीब लगी यह रचना...जो दिल को छू जाए...वही रचना प्रभावशाली होती है...

    जवाब देंहटाएं
  4. दोस्त अभी कुछ अनचाही परेशानियों से गुजर रहा हूँ. जब भी समय मिलगा तब आपकी एक-एक पोस्ट पढ़कर अपने सुझाव दूंगा और लूँगा. हम भी अनाड़ी और तुम भी अनाड़ी. मिलकर करेंगे ऐसा देखते रह जायेंगे सब खिलाड़ी. मेरी आपको शुभकामनाएं.

    जवाब देंहटाएं
  5. मैं क्या बोलूँ अब....अपने निःशब्द कर दिया है..... बहुत ही सुंदर कविता.

    जवाब देंहटाएं
  6. @संजय भास्कर
    धन्यवाद संजय जी...
    दिल से निकली सच्ची बात, अक्सर निःशब्द कर देती है...
    दुःख तो बस इस बात का है... के जिसके लिए लिखी है ये कविता
    उसने अभी तक पढ़ा नहीं इसे...

    जवाब देंहटाएं