शुक्रवार, 9 मार्च 2018

अंतहीन सी डोर



एक अंतहीन सी डोर है
क्या अदृश्य कोई छोर है..?
थामे हुए है मुझे और तुम्हें
मिलन की आस है
कैसी ये होड़ है..?

दूर हो के भी पास हैं
हमें एक दूजे का एहसास हैं
हरदम मिलन की आस है
कैसी ये प्यास है..?

चाहत और हकीक़त
में छोटा सा फर्क है
गर समझ गए तो जन्नत
वरना गर्द है।

जीवन की कश्ती मेरी
डूबे है अब हस्ती मेरी
न सोच के ये खेल है मुहब्बतों का
ये मुतालबा है हक़ का।

चाहूँ तुझे के पूरा कर
हर एक खाब तू अपनों का
मेरी चाहत का कोई मोल नहीं
पर सौदा न कर उनके सपनों का।

लिक्खा है तेरा मेरा मिलना आसमानों में
बस इंतज़ार ओ सब्र कर अरमानों में
मेरी ज़िन्दगी का भरोसा नहीं माही!
पर विश्वास है मुझे तेरे विश्वासों में।

महेश "माही"
8/3/18
10:33 am

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1 टिप्पणी:

  1. आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन अरे हुजूर वाह ताज बोलिए : ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है.... आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी..... आभार...

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