गुरुवार, 17 दिसंबर 2015

ये ज़िन्दगी..

पाँच पांडवों के बीच फँसी
द्रौपदी सी हो गयी है ज़िन्दगी।
किसका कब साथ निभाऊं
कुछ समझ में नहीं आता।
जहाँ देखूँ
वहीँ पे मेरा अपना खड़ा होता है,
पर किसके साथ
कहाँ जाऊँ
कुछ समझ में नहीं आता।

मैंने तो चुना था बस एक को
ठुकरा के जाने कितने अनेक को
फिर भी मिले साथ में और चार
पाँच कश्तियों में सफ़र करूँ अब कैसे
ओ मेरे यार!

इस सफ़र का जाने
कौन असल वाहक होगा?
मिले जो फल मुझको
तो किसका मुझपे हक़ होगा?

गर कभी एक की हुयी ये ज़िंदगानी
तो अगले को मुझपे ही शक होगा।
जाने किस मोड़ पर ज़िन्दगी
कब किसके सीने में मेरे लिए धकधक होगा।

ऐसे ही न जाने कितने
सवालों में हर रोज घूम रही है ज़िन्दगी
पाँच पांडवों के बीच फँसी
आज द्रोपदी सी लग रही है ज़िन्दगी।

हाँ!
ये मेरी ज़िन्दगी!

#महेश_बारमाटे_माही
17 दिसम्बर 15
8:20 am

(ये केवल मेरे विचार हैं, कृपया कर इस कविता को अन्यथा न लें)

6 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी यह उत्कृष्ट प्रस्तुति कल शुक्रवार (19.12.2015) को " समय की मांग युवा बनें चरित्रवान" (चर्चा -2194) पर लिंक की गयी है कृपया पधारे। वहाँ आपका स्वागत है, धन्यबाद।

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  2. सुन्दर व सार्थक रचना प्रस्तुतिकरण के लिए आभार..
    मेरे ब्लॉग की नई पोस्ट पर आपका इंतजार....

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  3. बहुत बेहतरीन रचना । मेरी ब्लॉग पर आप का स्वागत है ।

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