शनिवार, 21 नवंबर 2015

सफ़र-ए-दर्द का राही

जागता रहा रात भर
अपने गुनाहों को याद करता मैं
खुद से ही माफ़ी माँगता
और खुद को ही सजा देता मैं।

हर सजा के बाद
गुनाह खुद मुझसे पूछता
क्यों तूने मुझे किया
और फिर मुझसे रूठता।

न जवाब था
न शर्मिंदगी
जाने किस मोड़ पे आयी
आज ये ज़िन्दगी।

मैं जागता रहा
गुनहगार की तरह
सोती रही क़िस्मत
जाने किस जगह।


अब न माफ़ कर
मुझे मेरे माही!
के सजा भी मेरी
गुनाह भी मेरा
मैं सफ़र-ए-दर्द का हूँ एक राही।

#महेश_बारमाटे_माही
21 Nov 2015
6:25 pm

1 टिप्पणी:

  1. जय मां हाटेशवरी....
    आप ने लिखा...
    कुठ लोगों ने ही पढ़ा...
    हमारा प्रयास है कि इसे सभी पढ़े...
    इस लिये आप की ये खूबसूरत रचना....
    दिनांक 23/11/2015 को रचना के महत्वपूर्ण अंश के साथ....
    चर्चा मंच[कुलदीप ठाकुर द्वारा प्रस्तुत चर्चा] पर... लिंक की जा रही है...
    इस चर्चा में आप भी सादर आमंत्रित हैं...
    टिप्पणियों के माध्यम से आप के सुझावों का स्वागत है....
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ...
    कुलदीप ठाकुर...


    जवाब देंहटाएं