मुझपे रंग अपना, कुछ ऐसा लगा माही!
के अब कोई दूजा रंग मुझपे दिखे नहीं।
उतर जाएँ सारे रंग पुराने
के अब कोई दूजा रंग मुझपे बचे नहीं।
ऐसे सजूं कुछ अब मैं तेरे रंग से
के अब कोई दूजा रंग मुझपे सजे नहीं।
जहाँ भी जाऊं बस तुझको ही मांगू
के चाहत अब कोई मुझ में बचे नहीं।
कर दे रंगीन ये दुनिया मेरी
के हाथों पे कोई दूजी महंदी रचे नहीं।
आजा तेरे रंग में रंग जाऊं अब मैं कुछ ऐसे
के दुनिया का कोई रंग मुझपे अब बचे नहीं।
- महेश बारमाटे "माही"
एक कविता की तरह बहती हुई लेखनी.
जवाब देंहटाएंजारी रहे....यूँ शब्दों का नज्मो में तब्दील होना...