आवाजें सुनता मैं।
अब हर पल
तेरी धड़कनों से
बातें करता मैं ।
कभी इस जहां, कभी उस जहां
कभी दरिया तो कभी सहरा
बस तुझे ही ढूँढता फिरता मैं।
जी रहा हूँ इस कदर
दर-ब-दर, दर-ब-दर
हर गली हर शहर
तेरे ही नगमें गाता मैं।
ज़िंदगी एक ख्वाब हो
या सफर...
जुदा हो के भी
बस तुझमे समाता मैं।
तेरी कहानी
का हर लफ्ज
मेरी आँखों से पढ़ ले
के हर किस्से में
खुद में ही खोता जाता मैं।
आज मुझमे और तुझमे
क्या फर्क है बचा माही!
कभी तू मुझमे
कभी तुझमे समाता मैं।
- महेश बारमाटे "माही"
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