गुरुवार, 17 अप्रैल 2014

मेरे माही!


इश्क़ करता है तू
मुझसे मेरे माही!
पर जाने डरता है तू
किस से मेरे माही!

ये चाहत भी अजीब होती है।
हर पल मैं – तेरे और तू – मेरे करीब होती है।
फिर भी जुदा – जुदा सा फिरता है तू
मुझसे मेरे माही!

इश्क़ है तो इज़हार कर
आ इक पल के लिए तो मुझसे प्यार कर।
के जी ले आज उस पल में ज़िंदगी सारी
बिन मेरे जी रहा है तू जिसे मेरे माही!

हम मिले थे
कभी न बिछड़ने के लिए मेरे माही!
तेरी – मेरी भावना के संग
बहने के लिए मेरे माही!
भावनाओं का बहता झरना
किस मोड़ पे ले आया है हमें
के अब ज़िन्दगी तरस रही है,
मरने के लिए मेरे माही!

आ एक बार फिर
एक हो जाते हैं।
इक दूजे की बाहों में
खो जाते हैं।
इस गुजरते लम्हे की कसम है तुझे
के अब के ऐसे मिलें
के फिर न बिछड़ने के लिए मेरे माही!

मेरे माही!
आज भी तू मेरी तलाश में है
दूर ही सही, तू फिर भी मेरे पास में है।
तो फिर क्यूँ जुदा मुझसे होने की ज़िद है तेरी,
कोई खता नहीं, फिर भी सजा देने की ज़िद है तेरी,
के आज मेरा नाम,
तेरे रग – रग के एहसास में है।

- महेश बारमाटे "माही"

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