सोमवार, 31 जनवरी 2011

ये दिल मेरा...


मेरी रातों का आलम मत पूछो मुझसे,
के दिन तो कभी गुज़रता ही नहीं मेरा...

चाँद के दीदार को, सदियों से तरस रही हैं आँखे मेरी,
के दिलबर खिड़की पे कभी, सँवरता नहीं मेरा...

न जाने कब से खड़े हैं हम दर पे उनके,
के शायद ख्याल दिलो - दिमाग पे, उनके कभी उभरता नहीं मेरा...

उनकी बस इक नज़र पाने को,
न जाने कितनों के हैं दिल हमने तोड़े,
पर उनकी राहों से पहरा कभी टूटता नहीं मेरा...

कितने थे आए और न जाने कितने हैं चले गए,
कह कर सौ बातें उनके लिए ?
पर ज़माने की बातों को ये दिल, कभी सुनता नहीं मेरा...

के इश्क किया है हमने तो उनसे सच्चा,
के सिवाय उनके और किसी पे, अब तो ख्याल ठहरता नहीं मेरा...

राहे - मुहब्बत में बिछाता हूँ हर रोज,
हजारों गुलाब मैं उनके वास्ते...
पर महबूब इन रास्तों पे कभी चलता नहीं मेरा...

लगता है नज़र लग गयी है, ज़माने की हमको "माही",
के टूट के हज़ार बार भी अब ये दिल, बिखरता नहीं मेरा...

By
महेश बारमाटे - "माही"
30th Jan. 2011

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