तेरी सोच का मैं गुमान हूँ
मुझे इश्क़ की बहार न समझ।
मैं मजबूरियों में जो चला गया
मुझे बेवफा न समझ।
किसी दिन वापस आऊँगा
मुझे कल की बात न समझ।
मुझे समय पर है यक़ीन
मुझे वस्ल-ए-रात न समझ।
मेरी गुमनामियाँ तुझसे ही हैं
जो तू न मिला तो मैं क्या रहा
लिख रहा हूँ आज भी एक खत
मुझे डाकिया न समझ।
क्या पता, है ये क्या लिखा
मैं अनपढ़, मैंने कुछ न सीखा।
मेरे हाथ बस चलते रहे
कलम को नागवार न समझ।
थोड़ी तवज्जोह में खुश हो लूँ मैं भी
अगर वो तेरी तरफ से हो..।
दिल का कोना-कोना धड़कता है अब भी तेरे ही लिए
मुझे कोई ग़ैर यार न समझ..।
- महेश "माही"
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