रविवार, 8 सितंबर 2013

मोहरा... (The Pawn of Politics)


साला !
मैं तो राजनीति का मोहरा हो गया...
किसी की आँख का कीचड़,
तो किसी के लिए सुविधाओं से भरा चेहरा हो गया...

मैंने तो चाही थी
दो वक़्त सुकून की रोटी,
पर मेरी हर हरकत पे
राजनेताओं का पहरा हो गया।

कोई मुझे अपनी किस्मत का तारा है कह रहा
तो किसी के लिए मेरी अनुपस्थिति इक ख्वाब सुनहरा हो गया।

राजनीति के दलदल में वो मुझे
बस अपने स्वार्थ के लिए खींच रहे हैं माही!
आखिर सरकारी नौकरी पा के मैं
क्यूँ खुद के लिए ही जहरीला हो गया...

                 - इंजी॰ महेश बारमाटे "माही"

बुधवार, 4 सितंबर 2013

अभिवंदना

दोस्तों !
शिक्षक दिवस के उपलक्ष्य में सारे शिक्षकों की याद में एक नमन -

बचपन से लेकर आज तक
की है हमने सिर्फ जिसकी पूजा।
उस शिक्षक जैसा,
न मिला हमको कोई दूजा।

आज करते हैं हम सर्व प्रथम
उस "प्रथम शिक्षक" को नमन,
सच्चाई के रास्ते पर चलना सीखा हमने
पकड़ कर जी "माँ" का दामन।

हे ईश्वर !
क्षमा करना हमें
तुझसे बड़ा तो है वह शिक्षक महान,
जिसने दिया हमको
तेरी महिमा का ज्ञान।

इम्तिहान की अग्नि में तपाया
और दिया अन्दर से हमको सहारा।
हे शिक्षक !
हमारी नज़र में,
नहीं कोई पर्याय तुम्हारा।

क्या हुआ अगर कुछ लोगों ने,
बदनाम तुम्हारा नाम किया है.
हमने भी तो हर वक़्त,
ऊँचा तुम्हारा नाम किया है।

हे शिक्षक !
तुमको ही है हमने माना,
और तुमको ही है पूजा।
ईश्वर का अनमोल उपहार हो तुम
नहीं मिला हमको तुमसा कोई दूजा।

(नोट - यह कविता मैंने अपने कॉलेज के समय में केवल शिक्षक दिवस के लिए ही लिखी थी, और आज पुरानी यादों को याद करते वक़्त अचानक ये कविता मेरे सामने आ गई. और आपके सामने मैंने पेश कर दी। )

- महेश बारमाटे "माही"

शनिवार, 10 अगस्त 2013

बस एक अक्स...



वो दूर खड़ी देख मुझको मुस्का रही थी,
जैसे मेरी ही कमी हो,
ज़िंदगी में उसकी...
मुझसे ये जता रही थी...।

कुछ तो कहना था उसको मुझसे,
पर जाने किस डर से वो घबरा रही थी... ?

वो दूर खड़ी देख मुझको...

कब के हम बिछड़े
तो अब मुलाक़ात का बहाना न रहा
पर आँखें इस दफ़ा उसकी
बस मुझसे मिलना चाह रही थी...।

वो दूर खड़ी देख मुझको...

वो पल दो पल की मुलाक़ात
और फिर आ गई वो
जुदाई वाली बरसात
जाने ये किस्मत मुझसे,
क्या कहना चाह रही थी ... ?

वो दूर खड़ी देख मुझको...

के टूट गया फिर एक सपना
और हक़ीक़त सामने खड़ी थी
मेरा “माही”
मेरे ज़ेहन में बसा एक अक्स ही है
शायद किस्मत मेरी,
बस यही,
रूबरू – ए – हक़ीक़त कराना चाह रही थी...।

वो दूर खड़ी देख मुझको
मुस्का रही थी...

– महेश बारमाटे “माही”

मंगलवार, 23 अप्रैल 2013

वो मेरे छत की मुंडेर पर बैठी कोयल...

वो मेरे छत की मुंडेर पर बैठी कोयल
हर रोज सुबह एक गाना गाती है ...
जाने क्या ग़म है उसे
या है कोई बड़ी ख़ुशी
जो वो मुझे सुनाना चाहती है ?

मैंने सुना था के
कोयल तो बस
आम के बागों में ही गाना गाती है।
पर फिर क्यों वो हर सुबह
मेरे ही छत पे कुछ गुनगुनाती है ?

यूँ तो सारी कोयलें, एक ही राग में गाना गाती हैं...
पर ये कुछ ख़ास है,
के ये तो हर रोज
अपना सुर, अपना राग
नहीं दोहराती है...।

शुक्रवार, 19 अप्रैल 2013

उसने कहा था...


उसने कहा था,
के जब कभी भी तुम लौटो वापस, तो मुझे याद करना...
किसी से कुछ मत कहना,
पर सब से पहले मुझसे ही तुम बात करना...

शनिवार, 30 मार्च 2013

आज की नारी... (Today's Modern Girls)


दोस्तों !
आज जो कविता मैं पेश करने जा रहा हूँ, वह केवल एक व्यंग्य मात्र है, कृपया मेरी रचना को अन्यथा न लें... और अगर आपको इसे पढ़ने के बाद बुरा लगे तो मुझे छोटा भाई समझ के माफ कर देवें । :)

बुधवार, 27 मार्च 2013

इस होली में... (Happy Holi)


दोस्तों ! इस साल मैं होली अपने शहर में नहीं मना रहा, इसीलिए आज मैं अपने उन दोस्तों को बहुत याद कर रहा हूँ, जिनके संग हमेशा मैं होली खेला करता था। आज मेरी ये कविता, मेरे उन्हीं दोस्तों के नाम - 

शनिवार, 16 मार्च 2013

कोई तो है...

मुझे परेशां करने का
हर रोज वो रास्ता ढूँढ लेते हैं।
मैं छुप जाता हूँ अंधेरों में अक्सर,
फिर भी जाने किससे
वो मेरा पता पूछ लेते हैं।

कभी उनकी आवाज मुझे सताया करती थी,
आज ख़ामोशी से अपनी,
वो मेरा सीना चीर लेते हैं।

मैं कुछ भी नहीं बिन तेरे
इस जहां में माही !
फिर भी
"कोई तो है"....
ये कह के वो मुझसे मेरा
वजूद भी छीन लेते हैं ...

- महेश बारमाटे "माही"

बुधवार, 20 फ़रवरी 2013

इस कमरे में...

हवा आती ही कहाँ है,
जो इस कमरे से बाहर जा पायेगी ?
पर फिर भी जाने क्यों
खिड़की पे लगा ये पर्दा
यूँ ही कभी हिल जाता है ...

खिड़की से झाँकती रौशनी भी
अलविदा कह जाती है
शाम ढलते ही मुझको ...
फिर वो कौन है जो
अँधेरा चढ़ते ही कमरे में कोई शमा जला जाता है ...

जाने कितने मौसम बीत गए होंगे
इस कमरे के बाहर,
फिर भी कोई नहीं है जो
दरवाजे पे अपनी दस्तक दे जाता है ...

आज क़ैद सा हूँ मैं
इस कमरे में चंद यादों के साथ,
दीवार पे लटकी तस्वीर को ठीक करता मैं
जाने वो कौन है जो इस दीवार को ही हर बार
तिरछा कर जाता है

तेरी याद का फ़लसफा,
इन दीवारों ने बयाँ किया है हर रात मुझसे
फिर वो कौन है जो हर सुबह,
इस कमरे के दिल की हर बात मिटा जाता है ...

मुझे यकीं है के आज तू नहीं है माही !
इस कमरे में सिवाय मेरे ...
फिर जाने वो कौन है जो,
सोने के बाद मेरे,
मुझे ठण्ड लगते ही कम्बल ओढ़ा जाता है ...

महेश बारमाटे "माही"

मंगलवार, 12 फ़रवरी 2013

वो...


हर पल रंग बदलती ज़िंदगी को वो एक ही रंग में देखना चाहती थी...
नादान थी वो जाने कैसी...
के अपने हर पल में खुद को संग मेरे देखना चाहती थी...

वो जानती थी के ये पल कभी ठहरता नहीं,
और फिर भी
मुझे वक़्त के हाथों से मांगना चाहती थी...

एक ख्वाब उसने भी देखा था शायद,
वक़्त की दीवार में वो भी कुछ कुरेदना चाहती थी...

वो जो भी थी मुझे पुकारती थी कह के माही!
शायद अपना नाम मेरे नाम के संग जोड़ना चाहती थी...

- महेश बारमाटे "माही"
24 जनवरी 2013

सोमवार, 4 फ़रवरी 2013

वो तन्हा सर्द रातें...

तन्हा सर्द रातें,
बस कटती हैं
यूँ ही 
कर कर के खुद से ही बातें।

वो कहती है के 
तुम मुझको क्यों याद नहीं करते ?
पर कैसे बताऊँ अब उसे मैं के 
वो कौन सा पल है 
जब खुद से उसकी बात नहीं करते ...

वो रूठ गई है मुझसे 
बिना  मेरी गलती बताए ...
आखिर जाने किस तरह जी रही होगी वो 
बिना मुझको सताए ?

मुझे मालूम है 
के उसे मेरी आदत है,
वो मेरी ज़रूरत नहीं शायद
पर वो ही मेरी चाहत है ...

जाने कितने ख्वाब 
टटोलता मैं माही !
तेरे अक्स का आज भी पीछा कर रहा हूँ।
तुम हो या नहीं 
इसका मुझे पता नहीं 
पर आज भी इन सर्द रातों में मैं 
तन्हाई के संग 
बस मर रहा हूँ।

- महेश बारमाटे "माही"

शनिवार, 26 जनवरी 2013

प्यार या इमोशनल अत्याचार... ?


इस तकनिकी दुनिया ने रिश्तों की एहमियत भुला दी है, बस 4 दिन की चैटिंग, 4-5 फोन कॉल्स में ही आज कल प्यार हो जाता है और फिर यूँही दिल भी टूट जाता है, बस इसी कहानी को बयां मेरी ये कविता -

गुरुवार, 17 जनवरी 2013