सोमवार, 31 जनवरी 2011

ये दिल मेरा...


मेरी रातों का आलम मत पूछो मुझसे,
के दिन तो कभी गुज़रता ही नहीं मेरा...

चाँद के दीदार को, सदियों से तरस रही हैं आँखे मेरी,
के दिलबर खिड़की पे कभी, सँवरता नहीं मेरा...

न जाने कब से खड़े हैं हम दर पे उनके,
के शायद ख्याल दिलो - दिमाग पे, उनके कभी उभरता नहीं मेरा...

उनकी बस इक नज़र पाने को,
न जाने कितनों के हैं दिल हमने तोड़े,
पर उनकी राहों से पहरा कभी टूटता नहीं मेरा...

कितने थे आए और न जाने कितने हैं चले गए,
कह कर सौ बातें उनके लिए ?
पर ज़माने की बातों को ये दिल, कभी सुनता नहीं मेरा...

के इश्क किया है हमने तो उनसे सच्चा,
के सिवाय उनके और किसी पे, अब तो ख्याल ठहरता नहीं मेरा...

राहे - मुहब्बत में बिछाता हूँ हर रोज,
हजारों गुलाब मैं उनके वास्ते...
पर महबूब इन रास्तों पे कभी चलता नहीं मेरा...

लगता है नज़र लग गयी है, ज़माने की हमको "माही",
के टूट के हज़ार बार भी अब ये दिल, बिखरता नहीं मेरा...

By
महेश बारमाटे - "माही"
30th Jan. 2011

सोमवार, 3 जनवरी 2011

तमन्ना थी...

तमन्ना थी के हम फिर मिलें,
तमन्ना थी के कुछ पल हम फिर साथ चलें...

तमन्ना थी के तेरी ज़ुल्फों की छाँव में, एक लम्हा गुज़ार दूँ...
और उस एक लम्हे में तुझे, खुद से भी ज्यादा प्यार दूँ...

तमन्ना थी के तेरी हर एक अदा को, अपनी कविताओं में भर दूँ...
गर तू कहे तो तेरी माँग में, चाँद - तारों से भर दूँ...

तमन्ना थी के तेरी हँसी ही मेरी, सुबहो - शाम हो,
और तेरी पलकों की छाँव में अपनी महफिले - आम हो...

तमन्ना थी के हर रात मैं तेरे स्वप्नलोक का राही बनूँ...
ज़िन्दगी के हर मोड़ पे मैं ही तेरा हमसाया और मैं ही तेरा माही बनूँ...

तमन्ना थी के मेरी हर ख्वाहिश की तुमसे ही शुरुआत हो...
जहाँ भी देखूँ तो बस, मेरी तुमसे ही मुलाकात हो...

तमन्ना थी के तेरी खूबसूरती मेरी हर ग़ज़ल में शामिल हो,
और मेरी हर नज़्म बस तुझे ख़ुशी देने के काबिल हो...

तमन्ना थी के तेरा - मेरा प्यार हो इतना पवित्र,
के वो इस जहाने - इश्क के लिए ताज महल से कम न हो...
गर मिले कभी कोई गम मुझको,
लेकिन तेरी आँखें नम न हो...

तमन्ना थी के तेरी आँखों में डूब कर,
         एक नया ज़हाँ बसाना था...
समुन्दरे - इश्क की गहराई से तेरे लिए,
         कोई अनमोल मोती मुझे लाना था...

पर किस्मत को शायद, 
            कुछ और ही मंज़ूर था,
जिसको समझा मैंने दिल के सबसे करीब,
            वो ही दिल - ही - दिल में मुझसे दूर था...

जाने क्यों बहुत करीब थे तब हम,
         जब दरमियाँ हमारे बहुत दूरी थी...
वो दिन भी बड़े खुश - गवार थे,
         और हमारी न ही कोई मजबूरी थी...

आज मैं बस तेरी ही एक तमन्ना के लिए,
    अपनी हर ख़ुशी लुटा बैठा हूँ...
और तेरे प्यार को भी अपने दिल से,
           मिटा बैठा हूँ मैं...

अपनी तमन्नाओं का सागर,
          इस कदर पी लिया है आज मैंने,
के ऐसा लग रहा है जैसे तेरी याद में,
           एक युग जी लिया है आज मैंने...

पर आज इस सागर में फिर,
                एक लहर बहुत ऊँची उठी है,
पर जल्द ही टूट गयी वो प्यासी लहर,
                जब याद आया के तू अब भी मुझसे रूठी है...

तमन्ना थी के  आज तुझे अपनी आप बीती सुनाऊँ,
और अपनी तमन्नाओं में आखिरी बार डूब जाऊँ...
           डूब जाऊँ...
           कहीं खो जाऊँ.... और
                          कभी वापस ना आऊँ...

"रो रहा है हर पल, मेरी तमन्नाओं का ये सागर...
सूखने का इसे डर नहीं, बस तेरे रूठ जाने का गम है...
आ के तू एक बार तो देख इसे, ऐ मेरी तमन्ना !
वो दरिया जो कभी बहा था, इन आँखों से,
ज़मीं आज भी उसकी नम है..."

माही (महेश बारमाटे)
27th Feb 2010

रविवार, 2 जनवरी 2011

महेश हूँ मैं...

 
कुछ ख़ास नहीं, कोई खूबी मेरे पास नहीं,
फिर भी खुद में ही विशेष हूँ मैं ,
हाँ,
          वही सीधा - साधा इंसान
                   महेश हूँ मैं...

मुझमे है बस यही एक खूबी...
के मेरी दुनिया तो है बस "कहानी - कविताओं" में डूबी...

आज लोगों ने बस इन्ही की बदौलत मुझको है जाना,
         पर न मिला मुझको कोई भी ऐसा,
                  जिसने मुझको हो थोड़ा भी पहचाना...

अपनी ही दुनिया में खुश रहता हूँ मैं,
अक्सर महफ़िलों में ही चुप रहता हूँ मैं...

इसी कारण आज लोगों की नज़रों से दूर हूँ मैं,
और बेवजह ही किसी के प्यार के इल्ज़ाम में मशहूर हूँ मैं...

लोगों ने अक्सर मुझे, 
           रास्ते का है वो पत्थर समझा,
                      के गर मन किया तो संग बैठ के,
                                         थोड़ा आराम कर लिया,
और नहीं तो मुझको, या तो अनदेखा किया, 
                                          या उठा के फेंक दिया...

लोग सोचते हैं की मुझको कभी दर्द नहीं होता,
मेरी जिंदगी का कोई भी मौसम, कभी गर्म - सर्द नहीं होता...

पर कैसे बतलाऊं मैं सबको, के इस दिल को भी लगती ठेस है,
             और ये सब आपको बतलाने वाला, 
                    और कोई दूसरा नहीं, 
                      केवल "महेश" है...

बस अपनी इन्ही खूबियों के कारण,
        दुनिया की अदालत का बहुत विचित्र case हूँ मैं...
लोगों ने गर समझो तो विशेष,
         वरना वही पुराना "महेश" हूँ मैं...

सच कहूँ...

जीता था मैं कभी खुद के लिए,
पर आज जीता हूँ, बस एक ज़िद के लिए...

के मरने से पहले,
     एक ऐसा काम मैं कर जाऊं,
जिंदगी की एक शाम...
    अपने चाहने वालों के नाम कर जाऊं...

पर उस शाम से पहले मेरे पास, 
                          अभी काफी समय शेष है...
उस शाम से पहले करूँ मैं कोई काम ऐसा,
                     के लोग दूर से ही देख के बोलें, 
अरे ! 
       यही तो अपना 
                       "महेश" है...

- माही (महेश बारमाटे)
15th March 2009