गुरुवार, 17 दिसंबर 2015

ये ज़िन्दगी..

पाँच पांडवों के बीच फँसी
द्रौपदी सी हो गयी है ज़िन्दगी।
किसका कब साथ निभाऊं
कुछ समझ में नहीं आता।
जहाँ देखूँ
वहीँ पे मेरा अपना खड़ा होता है,
पर किसके साथ
कहाँ जाऊँ
कुछ समझ में नहीं आता।

मैंने तो चुना था बस एक को
ठुकरा के जाने कितने अनेक को
फिर भी मिले साथ में और चार
पाँच कश्तियों में सफ़र करूँ अब कैसे
ओ मेरे यार!

इस सफ़र का जाने
कौन असल वाहक होगा?
मिले जो फल मुझको
तो किसका मुझपे हक़ होगा?

गर कभी एक की हुयी ये ज़िंदगानी
तो अगले को मुझपे ही शक होगा।
जाने किस मोड़ पर ज़िन्दगी
कब किसके सीने में मेरे लिए धकधक होगा।

ऐसे ही न जाने कितने
सवालों में हर रोज घूम रही है ज़िन्दगी
पाँच पांडवों के बीच फँसी
आज द्रोपदी सी लग रही है ज़िन्दगी।

हाँ!
ये मेरी ज़िन्दगी!

#महेश_बारमाटे_माही
17 दिसम्बर 15
8:20 am

(ये केवल मेरे विचार हैं, कृपया कर इस कविता को अन्यथा न लें)

शनिवार, 21 नवंबर 2015

सफ़र-ए-दर्द का राही

जागता रहा रात भर
अपने गुनाहों को याद करता मैं
खुद से ही माफ़ी माँगता
और खुद को ही सजा देता मैं।

हर सजा के बाद
गुनाह खुद मुझसे पूछता
क्यों तूने मुझे किया
और फिर मुझसे रूठता।

न जवाब था
न शर्मिंदगी
जाने किस मोड़ पे आयी
आज ये ज़िन्दगी।

मैं जागता रहा
गुनहगार की तरह
सोती रही क़िस्मत
जाने किस जगह।


अब न माफ़ कर
मुझे मेरे माही!
के सजा भी मेरी
गुनाह भी मेरा
मैं सफ़र-ए-दर्द का हूँ एक राही।

#महेश_बारमाटे_माही
21 Nov 2015
6:25 pm

शुक्रवार, 13 नवंबर 2015

जाने क्यों..?

जब मैं तुमसे मिली थी
तब कुछ खास नहीं लगे तुम
पर शायद
कोई तो बात थी तुममे
जिस कारण
मैने तुमसे
दोस्ती करना चाही।
हममे
धीरे धीरे
बात
बातों की शुरुआत हुई।
फिर इन्हीं
बातों बातों में
मैं तुम्हे जानने लगी।
तुम इतना सच बोलते थे
कि अक्सर डर लगता था मुझे
कि अगर
हमारा रिश्ता आगे बढ़ता है तो
हम कैसे एक रह पाएंगे
बस इसी डर से
मैंने तुमको ठुकरा दिया था।
पर
जाने तुझमे क्या बात थी
जो तुम मुझे
अपने पास
वापस ले आये।
मैं फिर आई
तुम्हारी ज़िन्दगी में।
बस तुमको सुनने के लिये
मैं तुमसे बात करने लगी
बस तुमको देखने के लिए
तुम्हारी फोटो तुमसे मांगने लगी।
सब जानती थी मैं
तुम्हारे बारे में
कि तुम इश्क़ के काबिल नहीं
फिर भी
अब मैं तुमसे प्यार
करने लगी।
पर रहना था मुझे
प्यार से दूर
बस इसीलिए मैं
इन्कार करने लगी।
और फिर वही हुआ
जब तुमने सच में
इन धड़कनों को छुआ।
पर तुमने धोखा दिया
मुझे अपना के मुझसे दगा किया।
और चले गए दूर मुझसे
जाने क्यों हुए इतने मजबूर खुद से।
मैंने भी तब
तुमसे दूर जाने का
फैसला किया
पर दिल है कि मानता नहीं
ये आज भी
तुझे सुनने की ज़िद करता है
चोरी छुपे हर रोज
ये बस तुझको ही पढ़ता है।
सोचती हूँ
कि अब तो तुम बहुत दूर हो माही!
पर फिर भी
ये दिल मेरा
बस तुम्हारे लिए ही आज भी
जाने क्यों धड़कता है।
पता नहीं..
आखिर क्यों??

#महेश_बारमाटे_माही

बुधवार, 14 अक्टूबर 2015

दीवानी हूँ मैं उसके प्यार की..

ए साहिब!
पागल न कहना मुझे
के दीवानी हूँ मैं उसके प्यार की
वो माही है मेरा
और मंज़िल हूँ मैं उसके नाम की।

क्या कहना अदाओं के उसके
के कभी बड़ा हँसाता है वो मुझको
रो लेता है खुद में ही
पर बड़ा गुदगुदाता है वो मुझको।

उसकी सारी बातें
और वो शरारतें
बड़ा याद आती हैं
वो नटखट मुलाकातें।

वो मेरी जुदाई में
उसका शायरियाँ लिखना
और बस मेरे लिए ही
खुद में ही उसका अच्छा दिखना।

बड़ा तड़पाता है वो मुझे कभी कभी
पर बड़ा याद आता है वो मुझे हर कभी
जी रही हूँ आज बस उसके लिए मैं
गर वो न हो तो ख़त्म हो जाये ये ज़िन्दगी बस अभी।

ए साहिब!
पागल न समझ तू मुझको
के दीवानी हूँ मैं उसके प्यार की
एक तलब है मुझे
अब उसके इंतज़ार की।

देखना
वो जरूर आएगा
मिलने मुझसे
ए साहिब!
के वो माही है मेरा
और मैं मंज़िल हूँ
उसके नाम की।

पागल न बोल मुझको
के मैं तो दीवानी हूँ
हाँ
बस उसके नाम की।

#महेश_बारमाटे_माही
14/10/15
1:50 am

रविवार, 20 सितंबर 2015

यादों के झरोखों से....

यादों के झरोखों से
एक याद अब भी याद आती है
वो बचपन की अठखेलियाँ
दोस्तों के साथ की सैकड़ों मस्तियाँ
मुझे अब भी याद आती है।

कोई लौटा नहीं सकता
अब वो सुनहरे पल मुझे
के ज़िन्दगी की भाग दौड़
मुझे अब भी नहीं भाती है।

वो कहते थे कि बड़े हो जाओ
फिर जी लो ज़िन्दगी अपने हिसाब से
पर इस हिसाब किताब में अब
ज़िन्दगी जाने कहाँ खो जाती है।

आज न कोई रोक टोक
न नियम कानून
और न किसी सीमा का उलंघन है।
देख लिए सारे रिश्ते नाते
फिर भी सबसे प्यारा
ये दोस्ती का बंधन है।

ऐ दोस्त!
चल फिर जीते हैं कुछ पल ज़िन्दगी के
कि यादों के झरोखों से
ज़िन्दगी अब भी याद आती है।

#महेश_बारमाटे_माही
16 सितम्बर 15
9:59 am

रविवार, 16 अगस्त 2015

वो प्यार नहीं था..

वो...

वो प्यार नहीं था,
के जब तुमसे दूर जाने की बात
मैंने तुमसे कही थी
तो तुमने मुझे
न जाने कितनी बददुआएं,
कितनी बुरी बातें
कितने बुरे विचार
बस मेरे लिए ही तुम्हारे लबों से
कही होगी।

उन लबों से
हाँ! उन्हीं लबों से
जिसकी कभी मैंने अपनी किसी कविता में
या किसी शायरी में
सुर्खी की तारीफ़ें
कही होगी।
 
तुमने उस रात
मुझे सुनना ही नहीं चाहा
और न ही उसके बाद कभी,
क्या पता
दिल ने तुम्हारे
शायद मेरी कोई बात
तुमसे कही होगी।
वो प्यार नहीं था
के फैसला मेरा था
तुमसे दूर जाने का
के शायद
मेरे प्यार में थी कुछ कमी
जो तुमको अपनी
मजबूरी का पता चलने न दिया।
तुमसे बिछड़ के
तुम्हारी बददुआओं के साथ
जी लिया
और आज भी
जी रहा हूँ
“तुम कभी खुश नहीं रहोगे”
ये बात तुमने दिल से
कही होगी।  

तभी तो
आज मैं बस जी रहा हूँ
और खुश हूँ अपने सच्चे दिलबर के साथ
पर कहीं न कहीं
तुम्हारे दिल की बात
ऊपर वाले ने शायद
सुनी होगी
और
मैं और मेरा दिलबर
तुम्हारी बददुआओं के घेरे में
खुशी खुशी
ग़मों से लड़ रहे हैं
फिर भी
कभी मैंने तुमको
कोई बददुआ नहीं दी
के दिल में मेरे
कहीं प्यार नहीं था
पर प्यार में मुझे
बस दुआ ही देना आता है
पर शायद
वो प्यार नहीं था
जो तुमने मुझसे किया था।
तभी तो...

- महेश बारमाटे "माही"
16 अगस्त 2015