अनचाही सरहदें हैं खिंचने लगीं, अब दरमियाँ हमारे...
बेवजह ही दूरियाँ हैं बढ़ने लगीं, अब दरमियाँ हमारे...
तेरा आना ज़िन्दगी में मेरी,
अब एक ख्वाब हो गया है.
के पल-पल में ही टूटने लगे हैं रिश्ते,
अब नींद और दरमियाँ हमारे...
जनता हूँ के हम कुछ भी न थे कभी ज़िन्दगी में उनकी,
पर दूरियाँ इतनी भी न थी कभी दरमियाँ हमारे...
अब तो लगता है
के जान - पहचान का ही रह गया है
बस रिश्ता दरमियाँ हमारे...
के आज उसका शोना - माही
छिपने लगा है वक़्त की धुंध में,
के जब से अजनबी कोई,
इश्क उनका बन के आया है दरमियाँ हमारे...
ऐ सनम ! एक बार तो जरा,
इनायत कर मुझ पे ओ निर्ज़रा !
के लगता है आज मौत खड़ी है,
फिर रिश्तों के दरमियाँ हमारे...
आज फिर है देख रहा ये माही !
खुद को एक दो-रहे पर खड़ा...
के तेरी सोच के संग ऐ सनम !
बदलने लगा है अब सब कुछ,
बस दरमियाँ हमारे...
महेश बारमाटे "माही"
26th Apr. 2011