कुछ अंदर दबा हुआ
सा है
चुभता है ठूंठ
सा
अपनी आवाज को भी
नहीं सुनता मैं
चीखता हूँ गूँज
सा।
एक तरफ तन्हाइयों
का शोर है
दूजी तरफ ग़मों
का सन्नाटा पसरा हुआ है
किस तरफ रखूँ कदम
अपने
फर्श पे मेरा मैं
बिखरा हुआ है।
अपनी लाश पे चलके
निकल जाना है
ऐ दुनिया! तुझसे
मेरा
ऐसा ही रिश्ता
पुराना है।
तेरा रस्ता देखते
सदियाँ गुजर गई
कैसे तू आता माही!
के वादों की अब
तो राहें बदल गई…।
- महेश बारमाटे "माही"