मंगलवार, 4 दिसंबर 2012

वो झिलमिल तारों का साथ...

एक रात,
बैठा था मैं,
कुछ झिलमिल तारों के साथ...
ले हम हाथों मे हाथ,
रहे थे एक दूजे से सुख दुख की बात

हर किसी को ग़म था,
किसी न किसी की जुदाई का...
फिर भी हम खुश थे,
के ये वक़्त न था तनहाई का

हमने बात की,
एक दूजे के अन्तर्मन से
मुलाक़ात की...
हम नाचे,
हम गाए,
और सारे जहां ने खुशियों की बरसात की

झूम रही थी ये धरा,
और झूम रहा था आसमां...
वक़्त बीतता गया, कारवां बढ़ता गया,
किसी ने न जाना,
के हम पहुंचे थे कहाँ ?

और अचानक
जाने कहाँ से,
उस मनहूस सुबह की लालिमा छाई,
और एक - एक कर,
सारे तारों ने ले ली,
मुझसे विदाई...

छोड़ के मुझे,
उसी राह पे तन्हा,
आज ज़िंदगी की धूप में,
खो गए हैं वो कहाँ ?

जो झिलमिलाते थे,
मेरी ज़िंदगी के कुछ पलों को रौशन कर के
आज गुम हो गए हैं वो
जाने कहाँ गुमसुम हो के...

फिर भी दिल में आस है,
आस नहीं,
मुझे तो पूरा विश्वास है...

के ये दिन फिर ढलेगा,
और सुहानी रात आएगी
जैसे याद आ रही है मुझे उनकी,
एक रात फिर उन दोस्तों की बारात आएगी...

हम फिर झिलमिलाएंगे,
झूमेंगे, नाचेंगे, गाएँगे,
अपनी दोस्ती का जश्न मनाते हुए,
हर राहगीर को एक नई राह दिखाएंगे...

                     ज़िंदगी की धूप में,
                     हर तारा कुछ यूं खो जाता है...
                     के भूल के वो खुद का झिलमिलाना माही!
                     वो सुबह के सूरज की तरह,
                     किसी की ज़िंदगी हो जाता है...

- इंजी॰ महेश बारमाटे "माही "
28 अक्टूबर 2012 

गुरुवार, 25 अक्टूबर 2012

मेरा मन...


कुंठाओ से घिरा हुआ ये मन
आज पुकार रहा है तुम्हें
के तुम कहाँ हो
कहाँ हो तुम के ये दिल अब
बिन तुम्हारे न तो जी रहा है और न मर रहा है
बस तुम से मिलने की आखिरी आस में
आज तो ये अपनी आखिरी साँस  में
तुम्हारा ही नाम बार बार
कभी दिल के इस पार तो कभी उस पार
बस यूं ही
शायद बेवजह
या शायद एक वजह से ही
तुम्हारा नाम
अपने नाम के साथ
हर जगह
लिख रहा है...

- इंजी॰ महेश बारमाटे "माही"
25/10/2012

मंगलवार, 9 अक्टूबर 2012

मैं... आज फिर... लिख रहा हूँ...

आज...
लिख रहा हूँ...
हाँ ! मैं  फिर लिख रहा हूँ...

पर क्यों ?
क्यों छोड़ा था मैंने...
लिखना...?

क्या...?
भूल गया था मैं...
खुद से ही कुछ...
सीखना...?

जाने कितने...
मंज़र बीत गए...
और दिल को कितने...
खंजर चीर गए... ?

फिर भी क्यों...?
हाँ... हाँ क्यों...?
मैं कुछ लिख न पाया...?
देख के कई... सपने...
मैं खुद सपनों सा क्यों,
दिख न पाया... ?

देखो आज फिर,
लिख रहा हूँ...
फिर एक नई शुरुआत करना
सीख रहा हूँ...

हाँ!
हाँ! आज मैं कुछ...
लिख रहा हूँ...

माही !
लिख रहा हूँ न ? ...


इंजी० महेश बारमाटे "माही"
9 Oct 2012
10:35 pm

शुक्रवार, 28 सितंबर 2012

वो कुछ ख़ास है...

आज बहुत दिनों बाद मेरी कलम से कुछ शब्द दिल की आवाज को बयान करते मिले हैं... उम्मीद है आपको पसंद आएगी...। 

वो कुछ ख़ास है... 

वो दूर है,
और वो पास भी...
वो कुछ नहीं है,
पर वो ख़ास भी...

सोचता हूँ उसे,
और मानता हूँ उसे...
वो अगले कई जन्मों की तलाश है,
और वो एक प्यास भी... 

रोता हूँ उसके लिए,
और हँसता हूँ मैं संग उसके...
उससे इन्कार है मुझे
और उससे प्यार भी...

वो है मेरी ज़िंदगी का हर एक लम्हा,
फिर भी हूँ मैं अब तक तन्हा...
उसकी राहे-मंजिल हूँ मैं,
और वो मेरा साहिल भी...।

हूँ बेवफा मैं, बस उसके लिए...
और निभाई है वफा, शायद बस खुद के लिए...
 तू मेरी जीत का आगाज है माही !
और दिल की हार का साज भी...

तू दूर है...
और पास भी...
तू कुछ नहीं....
पर ख़ास भी...

- महेश बारमाटे "माही"
28 सितंबर 2012

सोमवार, 16 अप्रैल 2012

कभी कभी लगता है...



कभी कभी लगता है,
तुमको,
बस तुमको सुनता रहूँ...
कभी कभी लगता है,
तुमसे दिल की सारी बात कह दूँ...

रविवार, 18 मार्च 2012

दोस्ती और प्यार...


ऐ साजन मेरे !
जब तुम होते हो साथ मेरे...  
भूल जाता हूँ मैं सारा जहां,
हर शख्स, हर रिश्ता और हर दोस्त मेरा...
पर माफ कर देना तुम मुझे
के जब दोस्त हो कोई साथ मेरे
मैं तुझे कभी भूलता नहीं
पर उनका साथ आने देता नहीं
कभी तेरी याद
के दोस्ती और प्यार
होते हैं जैसे
इक़रार और एतबार...

शनिवार, 3 मार्च 2012

इंतज़ार...

इंतज़ार...

कभी - कभी कितना सुखद होता है
और कभी क्यों ये होता है दुःखद ...?

गर इश्क़ हो किसी से,
तो ये कीचड़ में खिलते कंवल सा होता है...
और कभी ये होता है केवल एक गहरा दलदल
गर हो ये कोई बस एक ज़रूरत...

कभी किसी के इंतज़ार में
हम बिता देते हैं कई सदियाँ
तो कभी कटता ही नहीं
एक और पल...

मंगलवार, 21 फ़रवरी 2012

वो... मेरा... अंतहीन एहसास है...

जाने क्या है वो ?
कभी लगता है बस एक आवाज है वो...
और कभी लगता है
के एक अजनबी एहसास है वो...

रोज ख्वाबों मे ही होती है बस उससे मुलाकात
और चुप चुप के होती है हर रात उससे फोन पे बात...

सोमवार, 23 जनवरी 2012

क्या लिखूँ ?

क्या लिखूँ ?

ज़िंदगी को लिखूँ दुःख की परिभाषा,
या कोई सुनहरा ख्वाब लिखूँ ?

हर पल रुलाता और सताता
ग़मों का पहाड़ लिखूँ...?
या हर पल मिलती 
खुशियों का संसार लिखूँ ?