एक रात,
बैठा था मैं,
कुछ झिलमिल तारों
के साथ...
ले हम हाथों मे
हाथ,
कर रहे थे एक दूजे से सुख दुख की बात…
हर किसी को ग़म था,
किसी न किसी की
जुदाई का...
फिर भी हम खुश थे,
के ये वक़्त न था
तनहाई का…
हमने बात की,
एक दूजे के अन्तर्मन से
मुलाक़ात की...
हम नाचे,
हम गाए,
और सारे जहां ने खुशियों की बरसात की…
झूम रही थी ये धरा,
और झूम रहा था आसमां...
वक़्त बीतता गया, कारवां बढ़ता गया,
किसी ने न जाना,
के हम पहुंचे थे कहाँ ?
और अचानक
जाने कहाँ से,
उस मनहूस सुबह की
लालिमा छाई,
और एक - एक कर,
सारे तारों ने ले
ली,
मुझसे विदाई...
छोड़ के मुझे,
उसी राह पे तन्हा,
आज ज़िंदगी की धूप
में,
खो गए हैं वो कहाँ
?
जो झिलमिलाते थे,
मेरी ज़िंदगी के
कुछ पलों को रौशन कर के…
आज गुम हो गए हैं
वो
जाने कहाँ गुमसुम
हो के...
फिर भी दिल में आस
है,
आस नहीं,
मुझे तो पूरा
विश्वास है...
के ये दिन फिर
ढलेगा,
और सुहानी रात
आएगी…
जैसे याद आ रही है
मुझे उनकी,
एक रात फिर उन
दोस्तों की बारात आएगी...
हम फिर
झिलमिलाएंगे,
झूमेंगे, नाचेंगे, गाएँगे,
अपनी दोस्ती का
जश्न मनाते हुए,
हर राहगीर को एक
नई राह दिखाएंगे...
ज़िंदगी की धूप में,
हर तारा कुछ यूं
खो जाता है...
के भूल के वो खुद
का झिलमिलाना माही!
वो सुबह के सूरज
की तरह,
किसी की ज़िंदगी हो
जाता है...
- इंजी॰ महेश बारमाटे "माही "
28 अक्टूबर 2012