पत्थरों पे बनी कारीगरी
देख बीता जमाना याद आया
वो लकड़ी की चौखटें
और भारी दरवाजों पे लटकी
लोहे की मोटी सांकरे
और
मोटे मोटे स्तंभों पे जमी इमारतें
जैसे आवाज दे रही हों
पत्थरों से बनी चिलमनें
के सुन ले ए मुसाफिर!
मेरे दर पे गुजरी आहटें।
कभी गूंजा करती थी
चंहु ओर किलकारी सी
आंगन में सजती थी
नित नए फूलों की फुलवारी सी
खलिहान में लगे नीम के पेड़ तले
चौपाल लगा करती थी
और घर के एक कोने में
गोशाला सजा करती थी।
गिनती में कम थे
पर मेरी खूब सेवा करते थे
मेरी ठंडी छांव में
पीढ़ियां गुजरा करती थी।
मेरे दरवाजों पे घोड़े हाथी
सलाम किया करते थे
मय खाने का भी था एक कमरा
जहां साकी के संग मालिक भी
एक नई ज़िन्दगी जीया करते थे।
अब न जाने कहाँ खो गई
वो किलकारी
वो हंसी ठहाके वाली महफिलें
वो मेहमान नवाजी
और वो बंद पर्दों के पीछे की
मौन चाहतें।
सजावट का अब वो नाम नहीं
जिनसे ये पाषाण दीवारें सजा करती थी
देख के अपनी खूबसूरती माही!
मैं भी इठलाया करती थी।
अब वो मेरा रंग रूप नहीं
न वो साजो-श्रृंगार है
मेरी भव्यता का लोहा
हो गया जंग-सार है।
सच कहूं मैं अपनी कहानी
तो
पहले बस मैं थी पत्थर की
और मेरे मालिक दिलदार थे
अब दिल हो गए पत्थर के
न मेरा नामो-निशान है।
न मेरा नामो-निशान है..
#महेश_माही
13/04/17
1:08 pm