हर सफ़र की मंजिल मशहूर नज़र आती है,
पर मेरी किस्मत ही कुछ ऐसी है कि हर बार दिल्ली दूर नज़र आती है.
जो आँखे देती थीं कभी हौसला हमको,
आज जाने क्यों वो मजबूर नज़र आती हैं ?
पूरी होती नहीं कोई आश मेरी,
जाने क्यों किस्मत को मेरी हर सोच "नामंजूर" नज़र आती है ?
आँखों के सामने से मंजिल अक्सर, दूर और भी दूर होती जाती है...
जाने क्यों किस्मत में मेरी हर बार दिल्ली दूर नज़र आती है ?
पर फिर भी एक आख़िरी आश के साथ, निकल पड़ता है "महेश" हर बार,
क्योंकि हर मंज़िल मुझे "खुदा का नूर" नज़र आती है.
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Mahesh Barmate
Jan. 11, 2010