जिसे पाने की उम्मीद पे चला हूँ,
वो मंजिल तो कभी दिखाई ही नहीं देती।
के हर रहगुज़र बन के मेरा हमसफर,
अक्सर मुझे यूं ही तन्हा छोड़ गया।
पर फिर भी जाने किस उम्मीद में जी रहा हूँ,
के कभी तो मंज़िल को पा ही लूँगा।
और वो भी फिर आएगा एक बार फिर पास मेरे,
जो पिछली दफ़ा मुझसे था मुंह मोड़ गया।
आज आसमाँ से गिरी एक बूंद भी मुझको,
तूफाँ की तरह भिगो गई,
लगा के जैसे मंद हवा का इक हल्का सा झोंका,
भी मुझे झँझोड़ गया।
जाने कितने जतन किए होंगे मैंने,
इन लबों को फिर खुशी देने के वास्ते...
पर किस्मत का हर ज़र्रा हर बार मेरा,
हर करम निचोड़ गया...।
फिर भी आज बैठा हूँ मैं इसी आस मे,
के लगता है मंज़िल अब भी यहीं कहीं है मेरे पास में।
और कह रहा है कोई इस दिल से,
के एक नज़र फिर देख इधर ओ मेरे "माही"!
वो जाता "लम्हा" भी किस्मत का फिर एक नया, दरवाजा खोल गया।
महेश बारमाटे "माही"
19 जुलाई 2011
4.32 pm