वो दूर खड़ी देख मुझको मुस्का रही थी,
जैसे मेरी ही कमी हो,
ज़िंदगी में उसकी...
मुझसे ये जता रही थी...।
कुछ तो कहना था उसको मुझसे,
पर जाने किस डर से वो घबरा रही थी... ?
वो दूर खड़ी देख मुझको...
कब के हम बिछड़े
तो अब मुलाक़ात का बहाना न रहा
पर आँखें इस दफ़ा उसकी
बस मुझसे मिलना चाह रही थी...।
वो दूर खड़ी देख मुझको...
वो पल दो पल की मुलाक़ात
और फिर आ गई वो
जुदाई वाली बरसात
जाने ये किस्मत मुझसे,
क्या कहना चाह रही थी ... ?
वो दूर खड़ी देख मुझको...
के टूट गया फिर एक सपना
और हक़ीक़त सामने खड़ी थी
मेरा “माही”
मेरे ज़ेहन में बसा एक अक्स ही है
शायद किस्मत मेरी,
बस यही,
रूबरू – ए – हक़ीक़त कराना चाह रही थी...।
वो दूर खड़ी देख मुझको
मुस्का रही थी...
– महेश बारमाटे “माही”
पर जाने किस डर से वो घबरा रही थी... ?
वो दूर खड़ी देख मुझको...
कब के हम बिछड़े
तो अब मुलाक़ात का बहाना न रहा
पर आँखें इस दफ़ा उसकी
बस मुझसे मिलना चाह रही थी...।
वो दूर खड़ी देख मुझको...
वो पल दो पल की मुलाक़ात
और फिर आ गई वो
जुदाई वाली बरसात
जाने ये किस्मत मुझसे,
क्या कहना चाह रही थी ... ?
वो दूर खड़ी देख मुझको...
के टूट गया फिर एक सपना
और हक़ीक़त सामने खड़ी थी
मेरा “माही”
मेरे ज़ेहन में बसा एक अक्स ही है
शायद किस्मत मेरी,
बस यही,
रूबरू – ए – हक़ीक़त कराना चाह रही थी...।
वो दूर खड़ी देख मुझको
मुस्का रही थी...
– महेश बारमाटे “माही”