मंगलवार, 31 मई 2011

मैं तो बस मोमबत्ती हूँ...

तिल-तिल करके जलती हूँ,
जग को रौशन करती हूँ,
शाम से लेकर रात तक
हर बूँद मैं पिघला करती हूँ...

अंधियारे के संग लड़ती हूँ,
हर पल खुद का दमन करती हूँ,
जल-जल के ही तो मरती हूँ,
के हर बूँद मैं पिघला करती हूँ...

किसी ने यूँ ही,
तो किसी ने मूर्त (रूप) देके मुझको जलाया,
गम इसका कभी नहीं करती हूँ,
के हर बूँद मैं पिघला करती हूँ...

मेरी हर मौत को उसने,
न जाने कैसे था भुलाया,
के जब भी जला करती हूँ,
घर उसका रौशन करती हूँ...

मेरी शमा को देख के,
कभी कोई परवाना भी था इतराया,
जला के उसको भी मैं,
नाम उसका रौशन करती हूँ...

मैं तो बस मोमबत्ती हूँ 
हर लौ में जला करती हूँ
कभी उफ़ भी नहीं करती हूँ 
के हर बूँद मैं पिघला करती हूँ...

मत भूल मेरे वजूद को "माही",
मैं तो बस एक मोमबत्ती हूँ,
सदियों पहले जो करती थी,
वो आज भी किया करती हूँ...

घर तेरा रौशन करती हूँ,
और अंधियारे से भी लड़ती हूँ,
मर के भी जिंदा रहती हूँ,
के हर बूँद को जिया करती हूँ...

महेश बारमाटे "माही"
२५ मई २०११ 

गुरुवार, 26 मई 2011

अब ये दर्द सहा नहीं जाता

कभी कभी किसी का मजाक
किसी को दर्द दे जाता है...
या अल्लाह ! तू ऐसे रिश्ते आखिर किस लिए बनाता है ?

 के दिल दुखता होगा तेरा भी...
जब कोई इन्सां किसी की मौत बन जाता है.

किसी का चैनो-सुकून छीन के वो
अपनी नयी दुनिया बसाता है.

और फिर कोई तीसरा आकर,
तेरी कायनात को ज़मीन के टुकड़ों में बाँट जाता है.

तेरे ही नाम पर खुद को तेरा
अजीज़ बताने वाला इन्सां, मज़हबी दंगे करवाता है.


कोई अपनी माँ का
तो कोई सारे हिन्दुस्तां का 
दिल चीरता चला जाता है.
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हे परम पिता परमेश्वर !

क्या इसी तरह की तू दुनिया बनाना चाहता है ?

क्या तेरे दिल में दर्द नहीं होता,
जब एक छोटा सा मजाक दो दिलों को तन्हा कर जाता है ?

जब एक सच्चा दोस्त,
अपने दोस्त को रुसवा कर जाता है ? 
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ऐ खुदा !

मालुम है के तुझे भी
हमारा दुःख तन्हा कर जाता है...

तेरी ही दुनिया में हर इन्सां
तुझे ही रुसवा कर जाता है...

तो फिर तोड़ के सारे बंधन
आजा हमें गले लगा ले,
ले अब तो तन्हा रहा नहीं जाता है...
और तेरी तन्हाई का भी
दर्द सहा नहीं जाता है...

के लाख मर्तबा टूट चूका है "माही"
तेरे इंतजार में,
अब तो इस सारी कायनात से
 तेरे बिन रहा नहीं जाता है...

महेश बारमाटे "माही"
17th March 2011

सोमवार, 16 मई 2011

कहाँ बनाऊं मैं अपना शीशे जैसा महल...

कहाँ बनाऊं मैं अपना शीशे जैसा महल,
अब तो हर एक के हाथ में पत्थर नज़र आता है.

कहाँ छुपाऊं मैं इन अश्कों इन आंसुओं को,
अब तो हर एक कतरा समंदर नजर आता है...

दिल का अफसाना दिल में ही रह गया,
जिसे सुनाना चाहता था, वह दोस्त भी कहीं खो गया.
किसे बताऊँ अब अपने दिल का हाल,
अब तो हर दोस्त सितमगर नज़र आता है...

रकीबों की साजिश ने, उसको भी मेरा दुश्मन बना दिया,
मेरी यादों को उसने, न जाने कैसे भुला दिया ?
पर आज भी इन आँखों को मेरा इंतजार करता, वो मेरा दिलबर नज़र आता है...

कहाँ बनाऊं मैं अपना शीशे जैसा महल,
अब तो हर एक के हाथ में पत्थर नज़र आता है.

जब तक मेरा हमसफ़र मेरे पास था,
उसका हर एक साया मेरे साथ था.
पर आज तो वह सिर्फ मेरे ख्वाबों में ही आता है,
और आकर कमबख्त बड़ा सताता है,
फिर भी मेरा दिल आज भी उस पर ही प्यार बरसाता है.

तरस गयी हैं आँखे उसका दीदार करने को,
नूर न रहा और अब आँखें भी चली गयीं मेरी,
अब तो इस बेजान शरीर को बस उसी का सहारा नज़र आता है.

उसकी जुदाई ने मेरी हालत ऐसी है कर दी,
के अब तो मुझे हर जगह,
मौत का खंज़र नज़र आता है..
और आज मेरी मौत का मुझे,
सच होता मंज़र नज़र आता है...

- विकास तिवारी और महेश बारमाटे "माही" (VBar)
१० जुलाई २००८...

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नोट - ये कविता मैंने अपने कॉलेज के दोस्त विकास तिवारी के संग मिलकर कॉलेज के दिनों में लिखी थी. उसके साथ मिलकर हमने २ - ३ और भी कवितायें लिखीं. और हमने अपने इस लेखन को नाम देने के लिए एक नया नाम सोचा था "वी बार (VBar)"... 
आज विकास मेरे पास नहीं पर मुझे यकीन है की हम फिर एक दिन फिर से और भी कवितायें लिखेंगे... 

बुधवार, 11 मई 2011

तड़प

मेरा चाँद न जाने कहाँ खो गया है,
लगता है जैसे बादलों की ओंट में छुपकर कहीं सो गया है...

बस उसी को ढूँढती है मेरी नज़र
अब तो हर रात,
न जाने कब कटेगी ये
अमावस की ये काली अँधेरी रात.

उसको देखे न जाने कितने हो गए हैं बरस,
बस उसी के लिए ये आँखे अब तक रही हैं तरस.

उसके बगैर मैं अब चाँद का चकोर हो गया हूँ.
लोग भी कहने लगे हैं के मैं तो अब, पंख कटा मोर हो गया हूँ.

फिर भी दिल में एक आस है
के मैं ढूँढ निकालूँगा उसे 
और मिल जाये तो
इस दिल के मन-मंदिर में सजा लूँगा उसे...


मेरे मन में उससे मिलने की बड़ी आस है,
क्योंकि उसकी एक तस्वीर आज भी मेरे दिल के बहुत पास है.

मैंने तो बस उससे ही मिलने की चाहत की है 
ज़िन्दगी में पहली और आखिरी बार बस उसी से मुहब्बत की है...

इसीलिए ऐ कायनात!
तू अब मुझे मेरा चाँद दिखा दे,
मेरे इतने बड़े इंतजार का मुझे
कुछ तो सिला दे.

कहीं ऐसा न हो के उसे देखे बगैर ही 
मैं इस दुनिया से चला जाऊँ.
जिसकी एक झलक झलक के लिए जी रहा हूँ मैं,
उसको कभी देख ही न पाऊँ.

उसकी यादें ही अब मेरे जीने का एक मात्र सहारा है,
इस दिल के आसमाँ एक बार करे वो रौशन,
बस यही आखिरी अरमाँ हमारा है.

के उसको देखे बागी इस जहाँ से मैं जाना नहीं चाहता.
जिंदगी की आखिरी ख्वाहिश में मैं,
उसके सिवा और किसी को पाना नहीं चाहता...

महेश बारमाटे "माही"

सोमवार, 9 मई 2011

चाहत मेरी...

दिल जानता था ये बात,
के न दोगी कभी तुम मेरा साथ...

फिर भी मैंने तुमसे ही प्यार किया,
दिल के बदले दर्द-ए-दिल मैंने तुमसे ही लिया...

प्यार क्या होता है, ये मैंने न था कभी जाना,
और तुमसे मिलकर ही मैंने था शायद इसे पहचाना.
पर जब खाया मैंने तुमसे धोखा,
तो लगा के शायद अब भी हूँ मैं सच्चे प्यार से अनजाना...

गलती मेरी ही थी शायद,
जो मैंने इसे प्यार समझा...
रहना था दूर जिससे मुझे,
उसे ही अपना दिलबर, अपना दिलदार समझा...

तुम्हे अपना समझ के मैंने,
"मैं क्या हूँ ?" ये भी तुमको बताया...
इशारों - इशारों में ही सही,
अपना हाल-ए-दिल भी मैंने तुमको समझाया...

पर मुझे क्या पता था, के तू अपने जैसा सबको समझेगी,
मेरे प्यार को महज एक दिल्लगी समझेगी...

मेरी हर कहानी में तुम थी,
मेरी हर कविता में भी तुम थी...
आँखों से जो कभी बहे, उस पानी में तुम थी...
मेरे दिल ने जो चाही थी लिखनी,
हर उस कहानी में भी तुम थी...

पर अब तू मेरे लिए, सिर्फ एक कहानी हो गई है...
तेरी हर एक अदा मेरे लिए, अब पुरानी हो गई है...

क्योंकि जो कुछ लिखा था मैंने तेरे लिए,
उसकी आज ये दुनिया दीवानी हो गई है...
मैं भूल चूका हूँ तुझे,
और तू अब दुनिया की भीड़ में खड़ी अनजानी हो गई है...

मुझे पता है के ये बातें सुनकर भी,
तुझको कोई फर्क नहीं पड़ेगा...
मेरी किसी बददुआ से भी तुझको,
कभी नर्क नहीं मिलेगा...

क्योंकि मैं चाहता हूँ के तुझको
दुनिया भर की हर ख़ुशी मिले...
और उस हर एक ख़ुशी में तुझको,
हर बार मेरी ही कमी मिले...

- महेश बारमाटे "माही"
२२ अप्रेल २००८ 

जरा यहाँ भी गौर फरमाइए... 

शनिवार, 7 मई 2011

विश्वास

ज़िन्दगी में अगर चुनना पड़े,
दो में से कोई एक राह...
तो ऐ मेरे यार!
मेरी एक बात तुम रखना याद,
के "जहाँ चाह, वहाँ राह"...

इसीलिए हमेशा अपनी एक ही मंजिल पे
तुम रखना निगाह...
एक रास्ता गर हो जाए बंद, 
तो बदल देना तुम अपनी राह...

पर मंजिल पर निगाहें, हमेशा जमाये रखना...
अपने दिल में जीत के लिए ललक जगाये रखना...

तुम जरूर जीतोगे,
अगर तुमको है विश्वास...
और गर कभी टूटने न दो,
अपनी ये आस.

चाहे रुक जाये तुम्हारी सांस,
"तुम जरूर जीतोगे"
ऐसा मेरा है - "विश्वास

- महेश बारमाटे "माही"

नोट - ये कविता मैंने तब लिखी थी जब मुझे लिखने की समझ न थी... आशा करता हूँ की आपको ये कुछ हद तक ही सही पसंद जरूर आएगी...