बुधवार, 20 फ़रवरी 2013

इस कमरे में...

हवा आती ही कहाँ है,
जो इस कमरे से बाहर जा पायेगी ?
पर फिर भी जाने क्यों
खिड़की पे लगा ये पर्दा
यूँ ही कभी हिल जाता है ...

खिड़की से झाँकती रौशनी भी
अलविदा कह जाती है
शाम ढलते ही मुझको ...
फिर वो कौन है जो
अँधेरा चढ़ते ही कमरे में कोई शमा जला जाता है ...

जाने कितने मौसम बीत गए होंगे
इस कमरे के बाहर,
फिर भी कोई नहीं है जो
दरवाजे पे अपनी दस्तक दे जाता है ...

आज क़ैद सा हूँ मैं
इस कमरे में चंद यादों के साथ,
दीवार पे लटकी तस्वीर को ठीक करता मैं
जाने वो कौन है जो इस दीवार को ही हर बार
तिरछा कर जाता है

तेरी याद का फ़लसफा,
इन दीवारों ने बयाँ किया है हर रात मुझसे
फिर वो कौन है जो हर सुबह,
इस कमरे के दिल की हर बात मिटा जाता है ...

मुझे यकीं है के आज तू नहीं है माही !
इस कमरे में सिवाय मेरे ...
फिर जाने वो कौन है जो,
सोने के बाद मेरे,
मुझे ठण्ड लगते ही कम्बल ओढ़ा जाता है ...

महेश बारमाटे "माही"

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