रविवार, 6 मार्च 2011

कुछ पता ही न चला...

जाने कब तुम इस दिल में आ गए,
कुछ पता ही न चला...
जाने कब तुम मेरी यादों में छा गए,
कुछ पता ही न चला...

जाने कब तुम मेरे अरमानों में समां गए,
कुछ पता ही न चला...
जाने कब तुम मेरे सपनों में छा गए,
कुछ पता ही न चला...

जाने कब मेरी आँखों में तुम्हारी तस्वीर बन गई,
कुछ पता ही न चला...
जाने कब तुम मेरी तकदीर बन गई,
कुछ पता ही न चला...

जाने कब तुम मेरी बातों में आते चले गए,
कुछ पता ही न चला...
जाने कब तुम मेरी रग - रग में समाते चले गए,
कुछ पता ही न चला...

जाने क्यों मैं तुम्हारा इंतजार करने लगा,
कुछ पता ही न चला...
जाने कैसे मैं तुमसे प्यार करने लगा,
कुछ पता ही न चला...

जाने कैसे मेरा तुमसे इकरार हो गया,
कुछ पता ही न चला...
जाने कब मुझे तुमपे ऐतबार हो गया,
कुछ पता ही न चला...

पर जब मैंने ये जाना,
तब तक बहुत देर हो चुकी थी...
मैंने चाह था तुमको सब कुछ बताना,
पर मेरी किस्मत सो चुकी थी...

मैं तो तुम्हारा ही था, 
सदा के लिए,
और चाहा था तुम्हे भी अपना बनाना,
पर तब तक, 
तू मुझसे,
बहुत देर हो चुकी थी...
मैंने चाहा था,
तेरे लिए इक सपना सजाना,
पर तब तक तुम,
किसी और की आँखों का
नूर हो चुकी थी...

वो रात, वो तन्हाई का आलम,
जाने कब फिर मेरी जिंदगी बन गया,
कुछ पता ही न चला...
तू क्या गई,
मेरी सारी दुनिया, मेरा सारा जहाँ
मुझसे जाने कैसे रूठ गया 
कुछ पता ही न चला...

आज तड़प रहा है "माही",
के तेरी यादों का समुन्दर ख़त्म ही नहीं है होता...
और इंतज़ार में तेरे
ऐ माही !
ये दिल न जाने कब कब रोता है ?

ये भी मुझे कभी पता ही न चला...
सच में...
कुछ पता ही न चला...

महेश बारमाटे "माही"
6th March 2011
11:54pm 

 

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