शुक्रवार, 11 मार्च 2011

डर...

आज डर रहा हूँ मैं,
खुद से ही बात करने के लिए...
जाने क्या हुआ है मुझे,

के डर रहा हूँ ख़ुशी के इन पलों में एक पल भी हँसने के लिए...

जाने मेरी क्या है मजबूरी,
या किस शख्स की है मुझसे दूरी,

के आज डर रहा हूँ खुद का ही इन्तज़ार करने के लिए...

कोई तो बात है,
के दिल रहता दुखी मेरा,
अब दिन और रात है...

जाने क्यूँ रूखे रूखे से आज मेरे ये जज़्बात हैं ?
के डर रहा हूँ अपनी ही महफ़िल में खुद का ही इस्तकबाल करने के लिए...

सुनता हूँ जब उनकी बातें,
सूनी हो जाती हैं मेरी रातें,

के डर रहा हूँ अपनी ही आँखों में इक तारे सा प्रकाश करने के लिए...

मेरी बस एक ख़ुशी, आज मेरे सारे दुखों का कारण है,
दिल हर दम है रो रहा, पर अश्कों में तो बस अब एक सूखा सावन है...

के तरस रहा है "माही",
आज इस सावन में खुद को तर करने के लिए...

माही !
चल अब कुछ करते हैं,
मर - मर के है बहुत जी लिया,
चल आज जीने के लिए मरते हैं...

के भेजा है खुदा ने तुझे भी इस जहाँ में,
कुछ न कुछ कर गुजरने के लिए...

- महेश बारमाटे "माही"
11th March 2011
12.35am 

7 टिप्‍पणियां:

  1. aap ke blog par pahli baar aaya bahut accha laga...
    wase to har kriti bhawnaon sae banti hai magar agar agar aap apni bhawnao ko vistar den to shayad aap ka dar bhi khatam ho jae aur aap ki pratibha bhi nikhar jae....

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  2. Dhanyawad Aashutosh ji...

    jo aap mere Blog pe aaye...

    maine apne har darr ko apni bhawna me hi hai chhupaya... or isi karan aaj main hu iss kadar ban paya

    gar ye darr na hota to kabhi meri jeet hi na hoti...
    iss darr ne hi to mujhe hai darr se jeet kar jeena sikhaya...

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  3. wooow maahi kya baat haiiii the last lines conclude the poem too gud :D

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