शुक्रवार, 17 सितंबर 2010

महफ़िल-ए-तन्हाई

महफ़िल-ए-तन्हाई


दिन महीने साल, सारे गुजर गए...
वो बदल के दुनिया मेरी, इक पल में यूँ ही बदल गए...

दिखाया जो एक ख्वाब उन्होंने, और हमसे दूर चले गए...
और हम बस उसी ख्वाब में, जिंदगी सजाते रह गए...

लोग कहते हैं के क्या सोच के हमने है उनसे दिल लगाया ?
और हम लोगों को अपने इश्क की गहराई समझाते चले गए...

काश...! के सोच - समझ के हमने भी इश्क किया होता,
पर हम तो दिल की बातों को ही, खुदा का अरमाँ मानते चले गए...

आज भी दिल के अरमानों को अपने अश्कों से बांध के रक्खा है हमने...
के टूट ना पाए दिल और एक भी अरमाँ उनका...
और वो मेरी मुस्कुराहटों को मेरी ख़ुशी समझते चले गए...

डर गए हम के इन अश्कों की बाढ़ में मेरा टूटा हुआ आशियाँ न बह जाए...
और इसीलिए उनकी चाहत में हम इस दिल को और भी डराते चले गए...

दिन महीने साल सारे गुजरते चले गए...
वो आए थे मेरी ज़िन्दगी में रहगुज़र की तरह, 
और हम उन्हें अपना हमसफ़र मानते चले गए...

एक बार तो दिल से याद कर ले मुझे, मेरे "माही"...
के दर पे खुदा के हम तुझको ही याद करते चले गए...

अब तो जो भी सजा मुकम्मल हुई है, खुदा से बेवफाई की...
उस सजा से भी इन्कार न किया हमने...
के तब भी तेर दीदार की फ़रियाद, हम खुदा से करते चले गए...

खुदा ने भी एक और एहसास मंज़ूर किया हमें तेरे नाम का,
और हम उस एहसासे मुहब्बत में, 
"माही" तुझको ही तलाश करते चले गए...

क्या हुआ जो खुदा ने न बख्शी, कोई नई ज़िन्दगी हमको...
पर हम तो हर बार एक नई ज़िन्दगी तेरे नाम करते चले गए...

कभी सुनते थे तुमको, लिख - लिख के जो ग़ज़ल तेरे हुस्न - तेर नाम की...
और अब इस महफ़िल-ए-तन्हाई में बैठ कर,
वही ग़ज़ल तन्हा ज़िन्दगी के संग सुनते और सुनते चले गए...

By
Mahesh Barmate - "माही"
15th Sept. 2010 

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