शुक्रवार, 27 जून 2014

जवाब-ए-ख़त...

मत भेज अब मेरे जवाब-ए-ख़त माही!
के तेरे इंतज़ार में, मैं भी अपना पता भूल बैठा हूँ...

दिन भूल बैठा हूँ
शाम भूल बैठा हूँ
जो रूठा था मैं तुझसे
वो खता भूल बैठा हूँ।

लिखता रहता था
ख़त तेरी याद में
आज मैं अपना ही
फलसफ़ा भूल बैठा हूँ...

अब तू मिल जाये
तेरी किस्मत होगी
कभी सुना था फरिस्तों से
वो किस्मत का लिखा भूल बैठा हूँ।

जा रहा हूँ अब मैं
मीलों दूर तेरी दुनिया से
तुझे जो बनायी मंज़िल अपनी
तो हर रस्ता भूल बैठा हूँ।

क्या लिखना था तेरे लिए
और क्या लिख बैठा हूँ
मैं तो तेरे इश्क़ में माही!
खुद का खुद से रिश्ता भूल बैठा हूँ...।

- महेश बारमाटे "माही"

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