बुधवार, 16 जून 2021

मेरे शहर की खिड़कियाँ

मेरे शहर की खिड़कियाँ
अब जंगलों में सिमट रही हैं
रौशनी का पता नहीं है
और ऑक्सीजन की भी कमी है।

सुना है कोई बड़ी बीमारी आई है
मैंने नन्हें कंधों पे लाशें देखी हैं
कोई आस्था के नाम पर लूट रहा है
कोई प्राइवेटाइजेशन में लुट रहा है।

सरकारें धोखा दे रही हैं
सरकारें धोखा खा रही हैं
पहले ईमान बिक जाते थे 
आज देश बिक रहा है।

है खरीददार कई
कुछ हुकूमतें तैयार हो रही हैं
घरों के कैदखानों में सिमटती नन्हीं ज़िंदगियाँ
खिड़कियों से शहर को ताक रही हैं।

मेरे शहर की ये खिड़कियाँ..

- महेश "माही"

6 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 17-06-2021को चर्चा – 4,098 में दिया गया है।
    आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ाएगी।
    धन्यवाद सहित
    दिलबागसिंह विर्क

    जवाब देंहटाएं
  2. एक बहुत अच्‍छी कव‍िता---वाह माही जी बहुत खूब

    जवाब देंहटाएं
  3. सटीक! हृदय स्पर्शी भावाभिव्यक्ति!

    जवाब देंहटाएं