शुक्रवार, 2 मई 2014

मजबूरियाँ

कुछ वर्ष पहले, जब मैंने लिखना शुरू किया था, बस उनही दिनों की यादों को याद करता मैं, आज अपनी डायरी पढ़ रहा था, तो एक अनमोल नगीना मिला। सोचा कि कुछ छोटे - छोटे फेर बदल के बाद आपके साथ साझा कर लूँ। 


मिल के भी मिल न सके हम
जाने वो क्या मजबूरी थी?
फासले तब हो चुके थे सारे कम,
पर जाने कैसी दूरी थी?

तेरी एक चहक से
महक उठा था मेरा सारा आलम
तब जिसने भी देखा
तुझे देना चाहता था अपना मन
तुझमे जाने कैसी जादूगरी थी?

सोचा था,
इज़हार करूंगा मैं तुझसे
जब हल्की सी धूप खिली थी।
सारा जहां महक रहा था उस पल,
फिजा में बस तेरी महक घुली थी।

हमारे इश्क़ को शायद
लग गई थी किसी की नज़र
जिससे हम थे जाने क्यों बेखबर?
समय पर मैं आ न सका
और तुझे पा न सका,
मेरी भी जाने ये कैसी मजबूरी थी?

मेरी आँखों के सामने
तू किसी और की हो गई
ऐसा लगा जैसे मेरी किस्मत
एक बार फिर सो गई,
पर बिन तेरे ये ज़िंदगी
अब भी अधूरी थी।

फिर भी आज बिन तेरे जी रहा हूँ मैं
ग़म – ए- जुदाई घुट – घुट के पी रहा हूँ मैं।
हमारे दरमियाँ पहले कभी न इतनी दूरी थी...

बहार में भी हमारे प्यार का गुल खिल न सका
उसकी भी कोई न कोई तो मजबूरी थी।
हम मिल के भी मिल न सके
तेरे – मेरी माही!
जाने क्या मजबूरी थी...?

- महेश बारमाटे "माही"

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