शुक्रवार, 10 दिसंबर 2010
ऐतबार
अपनी ही परछाइयों से डरने लगा हूँ मैं...
के जब से तुझसे प्यार करने लगा हूँ मैं...
अन्जान है तू आज भी मेरे हाले - दिल से...
इस बात का कोई गम नहीं मुझे,
बस अब तो तेरे एहसास से भी डरने लगा हूँ मैं...
घूम रहा था मैं इक दफा,
आवारा परवाने की तरह...
के जब से देखा है तेरी शमा - ए - मुहब्बत,
बस इक ठंडी आग में जलने लगा हूँ मैं...
तुझे पा के भी, ऐ सनम !
तेरी दगा - ए - मुहब्बत से कभी तेरे हो न सके हम...
पर फिर भी आज तेरा ही इंतज़ार करने लगा हूँ मैं...
मेरा मुकाम कहाँ तय था,
एक तेरा दिल ही तो बस मेरा आश्रय था...
टूट चूका हूँ आज इतना मैं, ओ मेरे माही !
के तेरी बेवफाई से भी वफ़ा करने लगा हूँ मैं...
ठुकरा दिया जिसने मुझे और मेरी मुहब्बत को,
आज उससे और भी प्यार करने लगा हूँ मैं...
के कभी तो तरस आएगा खुदा को भी मुझ पे "माही",
किस्मत पे अपनी, इतना तो ऐतबार करने लगा हूँ मैं...
महेश बारमाटे "माही"
6th Nov. 2010
kya baat hai maahi per yeh hai kiskey liye haan ;))
जवाब देंहटाएंty Syeda...
जवाब देंहटाएंbt really.. kaash koi to hoti... jis pr ye poem suit karti... ;)